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जैनधर्म में अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पांच परमेष्ठी माने गये हैं । वे जैनों के उपासनीय देव हैं। श्रात्मसाधना द्वारा जो ज्ञानावररणी, दर्शनावरणी, मोहनीय और अन्तराय इन घातिया कर्मों का क्षय कर देते हैं वे प्ररिहन्त कहलाते हैं। इन प्ररिहन्तों में जो संसार के कल्याण को उत्कट भावना के कारण सोलहकाररण भावनाओं का चिन्तवन कर पूर्व जन्म में सातिशय पुण्य प्रकृति तीर्थंकर प्रकृति का बंध करते हैं वे तीर्थंकर बनते हैं। ऐसे तीर्थंकर प्रत्येक कालचक्र में केवल 24 हो हो सकते हैं । इनके ही पंच कल्याणक होते हैं । शेष के किसी के तीन, किसी के दो कल्याणक होते हैं । धर्म तीर्थ की प्रवृत्ति इन 24 तीर्थंकरों द्वारा ही होती है। इन कल्याणकों के स्वरूप और भगवान महावीर के पंच कल्याणकों के सम्बन्ध में इस रचना में जानकारी दी गई है ।
प्र० सम्पादक
पंच कल्याणकों का स्वरूप और भगवान महावीर
* श्री प्रादित्य प्रचण्डिया 'दीति' एम. ए., रिसर्च स्कॉलर, अलीगढ़
जैन वाङ्मय में प्रत्येक तीर्थङ्कर के जीवनकाल की पांच प्रसिद्ध एवं महत्वपूर्ण घटनायें परिलक्षित होती हैं। इन्हें 'पंच कल्याणक' नाम से सम्बोधित किया जाता है । ये कल्याणक जगत के लिए प्रत्यन्त कल्याणप्रद एवं मंगलकारी होते हैं । जो जन्म से ही तीर्थङ्कर प्रकृति के साथ अनुस्यूत हुये हैं उनके तो पांच ही कल्याणक होते हैं, परन्तु जिसने अन्तिम भव ही तीर्थङ्कर प्रकृति का बन्ध किया है उसके यथा संभव चार, तीन या दो कल्याणक ही होते हैं। इसका कारण यह है कि तीर्थङ्कर स्वभाव के प्रभाव में साधारण साधकों को ये कल्याणक नहीं होते हैं । जैन संस्कृति में अवतारवाद के लिए कोई अवसर नहीं है । जीव का स्व कर्मानुसार उत्तरोत्तर विकास हुआ करता है । कल्याणक जीव की श्रेष्ठ परिणति का द्योतक है।
नव निर्मित जिन बिम्ब की शुद्धि हेतु जो पंचकल्याणक प्रतिष्ठा पाठ किये जाते हैं वह उसी
महावीर जयन्ती स्मारिका 77
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प्रधान पंच कल्याणक की कल्पना मात्र है । जिसके प्रतिष्ठापन से प्रभु प्रतिमा में वास्तविक तीथं की स्थापना होती है ।
अब यहाँ इन कल्याणकों का संक्षेप में विवेचन करेंगे ।
गर्भ कल्याणक :
प्रभु के गर्भ में आने से छः माह पूर्व से लेकर जन्म पर्यन्त पन्द्रह माह तक उसके जन्म स्थान पर इन्द्र के कोषाध्यक्ष कुबेर द्वारा प्रतिदिन तीन बार साढ़े तीन करोड़ रत्नों का वर्षरण होता है। देवांगनायें माता की परिचर्या एवं गर्भशोधन करती हैं । गर्भवाले दिवस से पूर्व रात्रि को माता को सोलह उत्कृष्ट स्वप्नों के प्रभिदर्शन होते हैं । इन स्वप्नों पर प्रभु का अवतरण निश्चय कर माता-पिता मुदित होते हैं ।
जन्म कल्याणक :
प्रभु का जन्म होता है । देवभवनों व स्वर्गों में अपने श्रा घण्टे बजने लगते हैं । इन्द्रों के प्रासन
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