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कम्पायमान हो जाते हैं जिससे प्रभु के जन्म का निश्चय हो जाता है । इन्द्र व देव सभी का प्रभु जन्ग- महोत्सव मनाने हेतु बड़ी धूमधाम से इस भूलोक पर श्रागमन होता है । देवगण अपने-अपने स्थान पर ही सात पग आगे जाकर प्रभु को परोक्ष नमस्कार करते हैं । देवांगनायें प्रभु के जातकर्म करती हैं । कुबेर नगर की अद्भुत साजसज्जा व शोभा में निमग्न होता है । इन्द्राणी प्रसूतिगृह में प्रवेश करती है। माता को माया निद्रा में सुलाकर उनके निकट एक मायामयी पुतला लिटा देती है । शिशु प्रभु को इन्द्र की गोद में दे देती है । प्रभु के सौंदर्य का अवलोकन करने हेतु इन्द्र एक सहस्र नेत्र बनाकर भी सन्तुष्ट नहीं होता अपितु ऐरावत हाथी पर प्रभु को लेकर सुमेरु पर्वत की ओर चलता है । वहाँ पहुंच कर पाण्डुक शिला पर शिशु प्रभु का क्षीरसागर से देवों द्वारा लाये गये जल के एक हजार आठ कलशों द्वारा अभिषेक करता है । तदनन्तर इन्द्र शिशु प्रभु को वस्त्राभूषण से अलंकृत कर नगर में देवों सहित महान उत्सव के साथ प्रवेश करता है। शिशु के प्रांगूठे में अमृत भरता है और ताण्डव नृत्यादि अनेक मायामयी अद्भुत लीलायें प्रगट कर देवलोक को प्रस्थान कर जाता है ।
तप कल्याणक :
राज्य के वैभव को भोगने के उपरान्त एक दिवस किसी कारणवश प्रभु को वैराग्य उदय होता
| ब्रह्म स्वर्ग से लौकान्तिक देव ग्राकर प्रभु को वैराग्यवर्द्धक उपदेश देते हैं । इन्द्र वस्त्राभूषरण से अलंकृत करता है । कुबेर द्वारा निर्मित शिविका में प्रभु स्वयं विराजते हैं। शिविका पहले कुछ दूर तक भूलोक पर मनुष्यों द्वारा संचालित होती है फिर देवगण प्रकाश मार्ग से प्रभु-पालकी ले चलते हैं । तपोवन में पहुंचकर प्रभु वस्त्रालंकार का परिहार्य कर केशों का लुंचन करते हैं और दिगम्बर मुद्रा धारण करते हैं । प्रभु के साथ अनेक राजा दीक्षा लेते हैं । इन्द्र प्रभु केशों को एक मणि
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युक्त पिटारे में रखकर क्षीरसागर में क्षेपण करता है । दीक्षास्थली तीथं स्थली में परिणत हो जाती है ।
प्रभु बेला, तेला आदि के नियमपूर्वक 'ऊ' नमः सिद्ध ेभ्यः' का उच्चारण कर स्वयं दीक्षा लेते हैं । नियम पूर्ण होने पर आहारार्थ नगर में प्रविष्ट होते हैं और यथाविधि श्राहार ग्रहण करते हैं । दातार के निवास में पंचाश्चर्यं श्रनुस्यूत होते हैं । ज्ञान कल्याणक :
यथाक्रम में ध्यान की सीढ़ियों पर श्रारूढ़ होते हुए चार घातिया कर्मों का नाश हो जाने पर प्रभु को केवल ज्ञान आदि अनन्त चतुष्टय लक्ष्मी प्राप्त होती है । तब पुष्पवृष्टि, दुन्दुभी शब्द, अशोक वृक्ष, चमर, भामण्डल, छत्रत्रय, स्वर्गसिंहासन और दिव्य ध्वनि ये आठ प्रतिहार्य उदित होते हैं । इन्द्र की प्राज्ञा से कुबेर समवशरण की सर्जना करता है । इस विचित्र सर्जना से जगत अचम्भित होता है । । बारह सभात्रों में यथास्थान देव, मनुष्य, मुनि, आर्यिका श्रावक-श्राविका आदि सभी प्रभु के उपदेशामृत का पानकर जीवन सफलीभूत करते हैं ।
प्रभु का विहार बड़ी धूमधाम से होता है । याचकों को किमिच्छक दान दिया जाता है । प्रभु के चरण कमल में देवगरण सहस्रदल स्वर्ण कमलों की रचना करते हैं और प्रभु इनको स्पर्श न करके अधर प्रकाश में ही गमन करते हैं। आगे-आगे धर्मचक्र चलता | बाजे -नगाड़े बजते हैं । पृथ्वी इति-भीति उन्मुक्त हो जाती है । इन्द्र राजाओं के साथ आगे मागे जय-जयकार करते चलते हैं । मार्ग में मनोहारी क्रीड़ास्थल निर्मित किये जाते हैं । मार्ग अष्टमंगल द्रव्यों से सुशोभित होता है । भामण्डल, छत्र, चमर स्वतः साथ-साथ चलते हैं। ऋषिगण अनुगमन करते हैं । इन्द्र प्रतिहारी बनता है । अनेक निधियाँ साथ हो लेती हैं । विरोधी अनुरोधी हो जाते हैं । अन्धे, बहरों को दिखने, सुनने लग जाता है ।
महावीर जयन्ती स्मारिका 77
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