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समर्पित करनें अक्षत-चंवन
* भी घासीराम जैन 'चन्द्र', शिवपुरी
युग युग बीत गए तुम आये धरती पर पादप लहराये डार डार ने फूल चढ़ाये बजी दुदुभी स्वर्ग लोक में
त्यु लोक ने हर्ष मनाये। कंचन बरसे, जन-मन हरर्षे किसी भूप के राजकुवर का जन्म हुआ था। प्रजा खुशी में नाच रही थी किसे ज्ञात था तब त्रिलोक से पूज्य बभेगा यह पालक प्रज्ञान-तिमिर को हरण करेगा वरण करेगा मुक्ति-रमा को। बड़े प्रेम से बड़े भाव से बुला रहे हम भगवन् प्रावो ! हमें ज्ञान के पाठ पढ़ावो किन्तु विराजित है घट-घट में वर्धमान उसको हमने कब पहिचाना है ? जो चिर-निद्रित मोह निशा के अंधकार में भटक रहा है अटक रहा भव भ्रमण जाल में उसे न मिलती त्रिशला माता सिद्धारथ-सा तात न पाया जम भरमाया उसे जगायो। बही वीर है. वर्धमान है, सन्मति है मतिधीर वही है महावीर यदि हम उसको पहिचानेंगे वर्धमान मिल जायं मिटेंगे भव-भव के अनादि के बंधन कर्म निकंदन तिहु'जग वन्दन त्रिशलानन्दन घट-घट व्यापक घट में बैठा प्रावो उसे समर्पित करदें अक्षत-चन्दन ।
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महावीर जयन्ती स्मारिका 77
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