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मापको मलिन करता रहता है। पर यह नहीं प्रतना संकिलिस्सति । अत्तना प्रकतं पापं अत्तना मालूम :
हि विसुज्झति ।' अर्थात् अपने स्वयं के किये हए अत्ता हि भत्तनो नाथो को हि नाथो परो सिया।
दुःखरूप पाप से स्वयं ही शुद्ध हो सकता है। प्रत्तना हि सुदन्तेन नाथं लभति दुल्लभं ॥
दोनों ही साधना पद्धति दुःखरूपी संसार के
धम्मपद-160 कारणों से छुटकारा प्राप्त करने को कहती हैं । (प्रात्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ।)
और इस बात पर विशेष जोर देती हैं कि जो गीता-6-5 संसार के भव भ्रमण से छूटना चाहता है, उसे
बाह्य से हटकर अपनी प्रान्तरिक गहराई तक पर्थात् पाप ही अपने स्वामी हैं, दूसरा कौन पहुंचना अवश्य है। स्वयं के द्वारा खोजे हुए मार्ग स्वामी हो सकता है। अपने स्वयं को भली प्रकार का निर्देश दूसरों को सहज ही दिखला सकते हैं । से दमन कर लेने पर मनुष्य दुर्लभ स्वामी को महावीर-बुद्ध ने अपने मार्ग को पहले खोजा, बाद प्राप्त कर लेता है। 'सच तो यह है कि जितने में दूसरों को बतलाया, तभी तो ढाई हजार वर्ष भी दुःख के कारण हैं वे सभी स्वयं के द्वारा बाद भी उनकी साधना पद्धति का मार्ग माज भी उत्पन्न किये गये हैं । इसलिए 'प्रत्तना हि कतं पापं स्मरण किया जाता है ।
अपनी प्रात्मा के साथ ही युद्ध करना चाहिये। बाहरी शत्रुओं के साथ युद्ध करने से क्या लाभ ? स्वयं के द्वारा स्वयं को जीतने वाला ही यथार्थ में पूर्ण सुखी होता है।
-भ. महाबीर
प्रत्येक साधक नित्य प्रति यह चिन्तधन करे--मैंने क्या कर लिया है और अब क्या करना बाकी है । कोन सा ऐसा कार्य है जिसे मैं कर सकता हूँ किन्तु कर नहीं पा रहा हूँ।
-भ० महावीर
महावीर जयन्ती स्मारिका 77
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