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भगवान महावीर : जीवन-झलक
* श्री नन्दकिशोर जैन एम० ए० , लखनऊ
वीर गर्भावतरण तथा जन्मोत्सव
हुए लगभग छब्बिस सो साल, बीतने को था चौथा काल, हमारी भारत भूमि रसाल, दुखों से पीड़ित थी बेहाल ।।
सजाए मोहक सुन्दर साज, सप्त सण्डों से युत गजराज, इन्द्र धनुषी नभ पथ से प्राय, श्वेत ऐरावत प्रति मन भाय ।
( 7 ) दिखा फिर पति सुन्दर वृषमेष । सिंह-थे जिसके स्वर्णिम केश ॥ कमल राजित लक्ष्मी मनुहार । ढोरते थे गज द्वय जलधार ॥
स्वार्थपरता छल-छिद्र अपार, झूठ, हिंसा अरु मायाचार, प्राप्ति भोगों की किसी प्रकार, बने थे जीवन के प्राधार ॥
( 3 ) पाप से पूरित थे सब कर्म । यज्ञ में पशु-बलि ही था धर्म । किसी विधि ढोते जीवन भार, दास बिकते थे बीच बजार ॥
दिखीं दो प्रतिसुन्दर बनमाल । चन्द्र-ज्योतिर्मय पूर्ण विशाल ॥ मिटाता पन्धकार का जाल, सूर्य प्राभामय निकला लाल ॥
समझ कर निज को केवल काय, तनिक से दुख में प्रति प्रकुलाय, कुदेवादिक को भजते जाय, भ्रमित जन करते व्यर्थ उपाय ।।
( 5 ) दुखों से विकल हुई प्रति सृष्टि, हुई तर जग पर मंगल वृष्टि । स्वप्न सोलह सुन्दर मनुहार, हुए त्रिशला मां को सुखकार ।।
कलश दो स्वर्णिम शोभायुक्त । तैरता मीन-युगल हो मुक्त ॥ सरोवर पंकज युक्त ललाम । तरंगायित सागर पभिराम ॥
( 10 ) स्वप्न-पंखों पर क्रमशः चित्र । बदल कर पाते रहे विचित्र ॥ स्वर्ण सिंहसन शोभावान । पौर फिर अनुपम देव विमान ।।
महावीर जयन्ती स्मारिका 77
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