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प्रतिष्ठा श्रहिंसोपदेश की ही है । महावीर श्रीर अहिंसा एक दूसरे के प्रतीक हैं- एक दूसरे के पर्यायवाची हैं । विश्ववंद्य बापू ने एक बार कहा था-'यदि प्राज कोई महावीर को जानता है तो बस उनकी हिंसा के ही कारण ।" श्रहिंसा तत्व की यद्यपि सभी धर्मों में प्रतिष्ठा के साथ व्याख्या की गई है तो भी इसकी अतुल गहराइयों में महावीर ही जा पाये, तलस्पर्श तो महावीर ने ही किया, बाकी सभी उथले (कम गहरे ) से ही लौट आये। तभी तो जैन दर्शन में इसके रूपों की विवेचना प्राप्य है । महावीर ने कहा था कि सभी जीवों की प्रात्मा समान है । सभी जीव जीना पसन्द करते हैं मरने की कोई भी इच्छा नहीं करता, साथ ही सभी जीवों को जीने का अधिकार है। यदि कोई जीव किसी श्रन्य जीव की हिंसा करता है तो सबसे पहले वह उसकी अपनी ही हिंसा करता है अतः किसी भी जीव की हिंसा मत करो, वध मत करो, पीड़ा मत पहुंचाश्रो सभी जीवों के साथ मैत्री भाव रखो इसी में कल्याण है ।
असमानता के विरोध में महावीर ने समानता की आवाज उठाई । मानववाद का अभियान चलाया। उन्होंने कहा सभी मनुष्य समान हैं । कोई भी मानव किसी वर्ग जाति-पांति या रूप-रंग के आधार पर ऊंचा नीचा नहीं है ये सारे भेद मानव के स्वयं निर्मित हैं अतः किसी को भी अपने से हीन मत समझो | सभी बराबर हैं । सत्य अनेकान्तात्मक है । कोई एक कथन किसी एक दृष्टि से सत्य है तो उससे विपरीत कथन भी किसी दूसरी दृष्टि से सत्य होता है । इसीलिये परस्पर विरोधी दो दृष्टिकोणों के बीच भी सामञ्जस्य का द्वार खुला रहता है । एतदर्थं उन्होंने ऐकान्तिक दृष्टि का परित्याग कर सभी के साथ शांतिपूर्ण सह अस्तित्व की भावना बनाये रखने पर जोर दिया ।
भगवान् महावीर जिस समय हुए उस समय
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हुए
देश में विभिन्न प्रकार के मत-मतान्तरों का प्रचार प्रसार चल रहा था । श्रात्मा के सम्बन्ध में भी लोगों में कई तरह की भ्रान्त दृष्टियां व्याप्त थीं । श्रतः इस सम्बन्ध में भी उन्होंने श्रपना स्पष्ट श्रौर सुलझा हुआ विचार- वास्तविक मान्यता तत्कालीन समाज के सामने पेश की । उन्होंने कहा श्रात्मा की स्वतन्त्र सत्ता है - प्रात्मा एक वास्तविकता है । उसका निर्माण किसी अन्य द्रव्य से नहीं हुआ है और न ही वह किसी अन्य द्रव्य के उत्पादन में सक्षम है । शरीर के साथ प्रात्मा का संयोग होते भी वह शरीर से एकदम भिन्न है जो अनादिकाल से जन्ममृत्यु के प्रावर्त में चक्कर लगा रही है और उनसे क्लेशित होती रहती है । संसार का चक्र प्रात्मा के लिये बड़ा दुःखदायी है । जो श्रात्मा संसार के चक्र से निकल जाती है वह पूर्ण रूपेण स्वतन्त्र हो जाती है और उसका दुःखों का अनादि अनवरत सिलसिला सदा के लिये समाप्त हो जाता है । श्रतः हे प्राणी ! तुम स्वयं अपने भाग्य के विधाता और अनन्त शक्ति के पुञ्ज हो अपने शुभाशुभ कर्मों के द्वारा ही तुम अपना अच्छा और बुरा कर सकते हो । अपने कर्मों के भोक्ता स्वयं तुम ही हो । अतः प्रपने पुरुषार्थ के द्वारा अपनी श्रात्मा को स्वतन्त्र करो - अनन्तकाल से संसारावर्तन में चक्कर लगा रही श्रात्मा का उद्धार करो। उसे बन्धन से निकालो और स्वतन्त्र करो - प्रात्मानन्द की अनुभूति को प्राप्त करो । कषाय मुक्ति के बारे में लोगों की श्रन्तश्चेतना को उबुद्ध करते हुए उन्होंने कहाराग और द्वेष श्रात्मा के ये दोनों ऐसे शत्रु हैं जो उसे सदा संसार में बांधे हैं कभी भी छूटने नहीं देते । इन दोनों का बन्ध ही संसार का बड़ा कारण है । अतः उससे छूटने के लिये क्रोध, मान, मायादि रूप कषायों को छोडो और सुखी होप्रो क्योंकि कषायों को छोड़ने वाला ही संसार छेदकर परमसुख और अनन्त शांति की प्राप्ति करता है ।
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महावीर जयन्ती स्मारिका 77
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