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अर्थात् भगवान् बोले हे मगधराज ! सुनो इस युग में आदि जिनेश्वर भगवान् ऋषभदेव प्रथम राजा हुए। काल के प्रभाव से कल्पवृक्ष के फल के क्षीण हो जाने पर कलिकाल के कपट के वशीभूत भरत की प्रजा को दुःखी देखकर करुणावश युगलियों (युग्म रूप में उत्पन्न) के पुरातन धर्म का भेदन कर संस्कारविधि सहित वर्ण और आश्रम (दो प्रकार) के विभाग तथा कृषि, वाणिज्य, शिल्प आदि, व्यवहार विधि तथा राजाओं का नीति मार्ग, पुर तथा नगरों की व्यवस्था, लौकिकपारलौकिक सभी विद्यायें, सभी क्रियायें, भगवान् (ऋषभदेव) ने लोगों के हित की कामना के लिए प्रवर्तित किया।
महाभारत में कहा गया है कि प्रारम्भ में ब्रह्मा जी ने उस समय फैली हुई अराजकता का अन्त करके समाज व्यवस्था पुनः स्थापित करने के बाद एक लाख श्लोकों में विशाल राज्यशास्त्र की रचना की। इसे क्रमशः शिव, विशालाक्ष, इन्द्र, बृहस्पति या शुक्र ने संक्षेप किया। (महाभारत, शान्तिपर्व ५७, ५८)। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी अनेक स्थलों में विशालाक्ष, इन्द्र (बहुदन्त), बृहस्पति, शुक्र, मनु, भारद्वाज और गौरशिरस् का उल्लेख करके इनके मन्तव्यों पर विचार किया गया है। इनके अतिरिक्त अर्थशास्त्र में पराशर, पिशुन, कौणपदन्त, वातव्याधि, घोटमुख, कात्यायन और चारायण आदि राज्यशास्त्र के प्रणेताओं का भी उल्लेख है। इसप्रकार भगवान् ऋषभदेव को स्पष्टरूप से राज्यशास्त्र का प्रणेता बताना लघ्वर्हन्नीति की अपनी विशेषता है। लघ्वर्हन्नीति का स्रोत
कुमारपालक्ष्मापालाग्रहेण पूर्वनिर्मितात्।
अर्हन्नीत्यभिधात् शास्त्रात्सारमुद्धृत्य किञ्चन॥१.६॥ आचार्य हेमचन्द्र ने कहा है कि चौलुक्य राजा कुमारपाल के आग्रह से पूर्व विरचित 'अर्हन्नीति' नामक शास्त्र से कुछ सार उद्धृत कर निश्चय ही राजा और प्रजा के कल्याण के लिए शीघ्रता से स्मरण में आने वाले तथा सरलता से ज्ञान होने वाले उत्तम शास्त्र लघु-अर्हन्नीति की रचना करता हूँ। आचार्य ने कई स्थलों पर वृत्ति में यदुक्तं बृहदहन्नीतौ कहकर गाथायें और गद्यांश उद्धृत किये हैं। यह प्राकृत भाषा-निबद्ध बृहदहन्नीति के अस्तित्व के सम्बद्ध में पुष्ट प्रमाण माना जा सकता है। लघ्वर्हन्नीति की वृत्ति में उपलब्ध कुछ उद्धरण इस प्रकार हैं -
रोगाउरेण दिण्णं जं दाणं मुक्खधम्मकज्जस्स।
तस्स य मरणेवि सुओ जुग्गोच्चियं तं धणं दाउं॥३.४.९॥ किसिवाणिज्जपसूहिं जं लाहो हवइ तस्स दसमस्सं दावेइ निवो भिच्चं अणिच्छिए वेज्जणे तस्स।१।-३.७.१८