________________
लघ्वर्हन्नीति
. (वृ०) विचारानन्तरं नीत्या राष्ट्रहितं कार्यम्। तत्र नीतिः कतिधेत्याह -
परामर्श के पश्चात् नीतिपूर्वक राष्ट्रहित (का कार्य) करना चाहिए। नीति के कितने भेद वर्णित हैं, इसका निरूपण -
नीतिस्त्रिधा युद्धदण्डव्यवहारैरुदाहृता।
तत्राद्या कार्यकालीना मध्यान्त्या च निरन्तरा॥५॥ युद्ध, दण्ड तथा व्यवहार रूप से नीति तीन प्रकार की कही गई है। प्रथम नीति (युद्ध) को अवसरानुकूल, मध्य (दण्ड) और अन्तिम (व्यवहार) निरन्तर प्रयोग में लाना चाहिए।
(वृ०) तत्रतावद्यथोद्देशनिर्देशेन युद्धनीतिवर्णनावसरेसन्ध्यादिगुणानामुपयोगित्वात्स्वरूपमुच्यते -
विषय के सङ्केत से युद्धनीति के वर्णन के अवसर पर सन्धि आदि गुणों की उपयोगिता होने से उनके स्वरूप का कथन किया जाता है -
सन्धिर्व्यवस्था वैरं च विग्रहः शत्रुसन्मुख-।
गमनं यानमाख्यातमुपेक्षणमथासनम् ॥६॥ (राज्यों में परस्पर) व्यवस्था सन्धि, शत्रुता रखना विग्रह, शत्रु के सामने गमन यान, शत्रु की उपेक्षा कर अपने स्थान में रहना आसन है।
द्विधा कृत्वा बलं स्वीयं स्थाप्यं तद्वैधमुच्यते।
बलिष्ठस्यान्यभूपस्याश्रयणं संश्रयः स्मृतः॥७॥ अपनी सेना का दो भागकर स्थापित करना द्वैध कहा जाता है, (शत्रु के भय से) अन्य शक्तिशाली राजा का आश्रय संश्रय कहा गया है।
इत्येते षड्गुणा नित्यं चिन्तनीया महीभुजा।
कालं वीक्ष्य प्रयोक्तव्या यथास्थानं यथाविधि॥८॥ इन छः गुणों (सन्धि, विग्रह, यान, आसन, द्वैध और संश्रय) का राजा को सदैव चिन्तन करना चाहिए। अवसर देखकर, स्थान एवं विधि के अनुरूप इसका प्रयोग करना चाहिए।
(वृ०) पङ्गिचिन्निबन्धनेन परस्परोपकारनियमबन्धव्यवस्था सन्धिः। स द्विविधः सत्यसन्धिः मायासन्धिश्च।
१. चिन्तया भ १, चिन्तनाया भ २, चिन्तनया प २।।