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दायभागप्रकरणम्
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पितुर्मातुर्द्वयोःसत्त्वे पुत्रैः कर्तुं न शक्यते।
पित्रादिवस्तुजातानां सर्वथा दानविक्रये॥८४॥ माता और पिता दोनों के (जीवित) रहने पर पिता द्वारा उपार्जित वस्तुओं का किसी भी स्थिति में दान और विक्रय पुत्र द्वारा नहीं किया जा सकता। ___ (वृ०) ननु औरसो दत्तको वा यदि प्रतिकूलः स्यात्तर्हि मातृपितृभ्यां किं कर्तव्यमित्याह -
वैध पुत्र अथवा दत्तक पुत्र यदि विरोधी हो जाय तो माता-पिता को क्या करना चाहिए? इसका कथन -
पितृभ्यां प्रतिकूलःस्यात्पुत्रो दुष्कर्मयोगतः। ज्ञातिधर्माचारभ्रष्टोऽथवा व्यसनतत्परः॥८५॥ सम्बोधितोऽपि सद्वाक्यैर्न त्यजेहुर्मतिं यदि। तदा तद्वृत्तमाख्याय ज्ञातिराज्याधिकारिणः॥८६॥ तदीयाज्ञां गृहीत्वा च सर्वैः कार्यो गृहाद्वहिः।
तस्याभियोगः कुत्रापि श्रोतुं योग्यो न कर्हिचित्॥८७॥ पुत्र पापकार्यों के सम्पर्क से माता-पिता के प्रतिकूल आचरण करे, जाति-धर्म के आचार से भ्रष्ट हो गया हो अथवा बुरी आदतों में संलग्न हो, सत्परामर्श दिये जाने पर भी यदि दुर्बुद्धि का त्याग नहीं करता है तो उसका आचरण जाति तथा राज्य के अधिकारियों को बताकर और उस (राज्याधिकारी) की आज्ञा लेकर सब लोग उसे घर से बहिष्कृत करें। बहिष्कृत किये जाने पर उसका आरोप कहीं भी सुने जाने योग्य नहीं है।
पुत्रीकृत्य स्थापनीयोऽन्यं डिम्भं सुकुलोद्भवम्।
विधीयते सुखार्थं हि चतुर्वर्णेषु सन्ततिः॥८८॥ (पुत्र को घर से बहिष्कृत कर) अच्छे कुल में उत्पन्न दूसरे शिशु को पुत्र रूप में स्थापित करना चाहिए। निश्चित रूप से चारों ही वर्गों में सन्तान सुख के लिए होता है।
(वृ०) नन्वविभक्तेषु भ्रातृष्वेको दीक्षां गृह्णाति तदा तद्भागग्रहणे तत्पत्नी शक्ता न वेत्याह -
अविभाजित भाइयों में से एक भाई दीक्षा ग्रहण कर लेता है तब उसका भाग ग्रहण करने में उसकी पत्नी सक्षम है या नहीं, इसका कथन -