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दायभागप्रकरणम्
उत्तम आचरण वाली, सच्चरित्रा, स्त्रियों का पोषण करना चाहिए, (मर्यादा के) विरुद्ध कुत्सित आचरण वाली और दुश्चरित्र स्त्री को घर से निकाल देना चाहिए।
( वृ०) नन्वप्रजा विधवा भूतावेशादिदोषसद्भावेन यदि स्वरक्षा - करणेऽसमर्थी तदा केन तद्रक्षा विधेयेत्याह
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यदि सन्तान रहित विधवा भूत आदि से आविष्ट होने के कारण अपनी रक्षा करने में असमर्थ हो तब उसकी रक्षा किसके द्वारा की जानी चाहिए, इसका
कथन
भूतावेशादिविक्षिप्तात्युग्रव्याधिसमन्विता
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वातादिदूषिताङ्गा च मूकान्धास्पष्टभाषिणी ॥७७॥
मदान्धा स्मृतिहीना च धनं स्वीयं कुटुम्बकम् । त्रातुं न हि समर्था या सा पोष्या ज्येष्ठदेवरैः ॥७८॥
भूत-पिशाच आदि की पीड़ा से विक्षिप्त, अत्यन्त गम्भीर रोग से पीड़ित, वायु आदि से दूषित अङ्ग वाली, गूंगी, अन्धी, अस्पष्ट बोलने वाली, मदान्ध, स्मरणशक्ति खोने वाली विधवा यदि धन से अपने कुटुम्ब की रक्षा करने में असमर्थ है तो ज्येष्ठ और देवर द्वारा उसका पालन किया जाना चाहिए।
भ्रातृजैश्च सपिण्डैश्च बन्धुभिर्गोत्रजैस्तथा । ज्ञातिजैरेक्षणीयं तद्धनं चातिप्रयत्नतः॥७९॥
भाई के पुत्रों (भतीजों), सपिण्ड पुरुषों (सात पीढ़ी तक स्वामी की वंश परम्परा में उत्पन्न), बन्धुज (चौदहवीं पीढ़ी तक स्वामी की वंशपरम्परा में उत्पन्न) और अपने गोत्रीय सजातीय लोगों द्वारा उसके धन की अत्यधिक प्रयत्न से रक्षा की जानी चाहिए।
( वृ०) अत्राप्यसत्वेन प्रतिकूलतया वा पूर्वाभावे परैरिति बोध्यम् ।
इस स्थिति में अभाव से अथवा विपरीत स्थिति होने पर पहले के अभाव में बाद के द्वारा (उसके धन की रक्षा की जानी चाहिए) यह जानना चाहिए।
नन्वनपत्यविधवाग्रहणे तत्पितृपक्षीयानामपि कोप्यधिकारोऽस्ति न वेत्याहसन्तानहीन विधवा का धन ग्रहण करने में उसके पितृपक्ष वालों का भी कोई अधिकार है अथवा नहीं, इसका कथन
यच्च दत्तं स्वकन्यायै यज्जामातृकुलागतम् । तद्धनं न हि गृह्णीयात् कोऽपि पितृकुलोद्भवः ॥ ८० ॥