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द्यूतविधिप्रकरणम्
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(द्यूतक्रीड़ा स्थल पर) जीतने वाले व्यक्तियों (जुआरियों) की परस्पर कलह आदि से रक्षा करनी चाहिए और पूर्ण रूप से राज्य का और अपना भाग निकाल कर, बिना आलस्य के राज्यांश को प्रतिदिन राज्य (राजकोष) में देना चाहिए और अपने भाग से अपने परिवार का निर्विघ्न पालन करना चाहिए।
जिते पराजितेऽन्योऽन्यं क्लेशो यदि भवेत्सभेट। तद्विमृश्य जितं द्रव्यं दापयेच्च पराजितात्॥७॥ यदि स्वं दापनेऽशक्तस्तदा भूपं निवेद्य सः।
दापयेन्नियतं रिक्थं नो हानिः स्याद्यतः पुनः॥८॥ (द्यूत क्रीड़ा में) जीतने और हारने पर यदि सभा में आपस में विवाद हो तो विमर्श कर हारे हुए जुआरी से जीता हुआ धन (जीतने वाले को) दिलवाना चाहिए। यदि धन दिलवाने में असमर्थ हो तब राजा से निवेदन कर वह नियत भाग (जीतने वाले को) दिलवाना चाहिए जिससे पुनः (द्यूत स्थल पर) हानि न हो।
राज्यस्थाने सति छूते कैतवेभ्यश्च रक्षणम्।
भवत्यतः सभास्थाने द्यूतक्रीडा सदोचिता॥९॥ राजकीय स्थल पर छूत (क्रीड़ा) होने पर कपटियों से सुरक्षा रहती है अतः राजकीय सभा स्थल में द्यूत क्रीड़ा सदैव उचित होती है।
प्रच्छन्नं स्वगृहे द्यूतं ये दीव्यन्ति सभेट ततः।
राज्यांशं द्विगुणं गृह्णीयात्स्वांशं निर्णये सति॥१०॥ जब छिपे रूप से अपने घर में द्यूत खेलते हैं तब अपने भाग का निर्णय हो जाने पर राजा का भाग दो गुना लेना चाहिए।
एषा द्यूतक्रिया लोके सर्वव्यसननायिका।
श्वभ्रतिर्यग्गते ती स्मार्या शिष्टजनैर्न हि॥११॥ यह द्यूत क्रीड़ा संसार में सभी व्यसनों की नायिका है। शिष्ट लोगों द्वारा इसे नरक और तिर्यञ्चगति की दूती के रूप में स्मरण करना चाहिए। निश्चित रूप से व्यवहार में नहीं लाना चाहिए।
इत्थं समासतः प्रोक्ता द्यूतव्यवहतिर्मया।
संसारस्योपकाराय भाग्याधिक्यप्रकाशिका॥१२॥ इस प्रकार संसार के उपकार के लिए भाग्य के आधिक्य को प्रकाशित करने वाली, द्यूत-क्रीड़ा का व्यावहारिक रूप मेरे द्वारा संक्षेप में वर्णित किया गया।
॥ इति द्यूतविधिप्रकरणम्॥