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लघ्वर्हन्नीति
पुत्र उत्पादन के लिए ब्रह्मा ने स्त्री की रचना की। पति की सेवा स्त्रियों का परम कर्त्तव्य कहा गया है। पति की सेवा, पुत्र की उत्पत्ति, उसकी रक्षा और गृहकार्य – ये मुख्य रूप से स्त्रियों के कर्म बताये गये हैं।
१भत्रर्द्धदेहसंलीना भर्तृभक्तिपरायणा।
पतिमेव प्रभुं मन्या प्रोक्ता सा तु पतिव्रता॥२४॥ पति के आधे शरीर में लीन, पति-भक्ति में तत्पर, पति को परमेश्वर मानने वाली पतिव्रता कही जाती है।
निःस्नेहा' चलचित्तत्वात्पौंश्चल्या दुष्टनोदनात ।
कुसङ्गतो भवेन्नारी कुसङ्गं वर्जयेत्ततः॥२५॥ स्त्री बुरी सङ्गत के कारण चित्त की चञ्चलता और दुष्ट की प्रेरणा से स्नेहरहित एवं कुलटा हो जाती है अतः कुसङ्ग का त्याग करना चाहिए।
स्वकीयकुलरीतिस्तु रक्षणीया प्रयत्नतो यतः।
कुलद्वये 'यथा न स्यान्मलिनत्वं कुलस्त्रियाः॥२६॥ कुलीन स्त्रियों को प्रयत्नपूर्वक अपनी कुलपरम्परा की रक्षा करनी चाहिए जिससे स्त्री के दोनों कुलों (पतिकुल तथा पिताकुल) में मलिनता न (उत्पन्न) हो।
देवयात्रोत्सवे रङ्गे चत्वरे जागरे कलौ।
कुलस्त्रिया न गन्तव्यमेकाकिन्या कदाचन॥२७॥ देव की यात्रा, उत्सव, नाटक, चतुष्पथ या बाजार, जागरण और कलहयुक्त स्थान में कुलीन स्त्री को कभी एकाकी नहीं जाना चाहिए।
स्नानोद्वर्त्तनतैलाद्यभ्यङ्गलेपनकानि नो। कारयेत्परहस्तेन
शीलरक्षणतत्परा॥२८॥ शील की रक्षा में तल्लीन स्त्री स्नान, उबटन, तैल आदि से मालिश दूसरे के हाथों से न कराये।
गणिका लिङ्गिनी दासी स्वैरिणी कारुकाङ्गनाभिः। कार्यो न हि संसर्गो यशोहेतोः कुलस्त्रिया॥२९॥
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भर्तीद्वदे भ १, भ २, प १, प २।। निस्नेहा भ १, भ २, प १, प २।। पौंश्चली प १, प २।। दुष्टनोदना भ १, भ २, प १, प २॥ यतः कुलद्वयेनस्यान्मलीनत्वं भ १, भ २, प १, प २।।
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