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लघ्वर्हन्नीति
न स्पृशेद्वस्तुमात्रं हि न भुंक्ते कांस्यभाजने। गृहाबहिर्न गन्तव्यं देवतायतनेऽपि न॥१०॥ शयीत न हि 'खट्वायां पुष्टान्नं नैव भक्षयेत्।
आदर्शालोकनं नैव ऋतौ कुर्यात्कुलाङ्गना॥११॥ ऋतुकाल में कुलवधू न ही किसी वस्तु का स्पर्श करे, न ही कांसे के पात्र में भोजन करे, घर से बाहर भी न जाय और मन्दिर भी न जाये। निश्चित रूप से न तो वह पलङ्ग पर शयन करे, न ही पौष्टिक अन्न ग्रहण करे और न ही दर्पण का अवलोकन करे।
शरीरसंस्कृतिं नैव कुर्यादुद्वर्तनादिभिः।
न काष्ठघर्षणं दन्ते दिवा स्वापं च वर्जयेत्॥१२॥ उबटन आदि (प्रसाधनों से) शरीर का संस्कार नहीं करना चाहिए। दाँतों को काष्ठ (लकड़ी) से नहीं घिसना चाहिए और दिन में निद्रा का त्याग करना चाहिए।
चतुर्थेऽह्नि कृतस्नाना दृष्ट्वा स्वीयधवाननम्।
कृतसर्वसुसंस्कारा कुर्यात् क्षीरान्नभोजनम्॥१३॥ चौथे दिन स्नान कर अपने पति का मुख देखकर सभी सुसंस्कारों को सम्पन्न कर खीर का भोजन करे।
तद्दिने चित्तविक्षेपं क्रोधं वा न करोति वै। कृतमङ्गलनेपथ्याभूषालङ्कृतविग्रहा ॥१४॥ कृताञ्जनादिसंस्कारा. पुष्प सुगन्धवासिता।
स्वस्थचित्ता सुशय्यायां शेते पतिना सह॥१५॥ उस (ऋतु काल के चौथे) दिन वह मन में विक्षोभ अथवा क्रोध न करे, मङ्गल वस्त्र धारण कर, आभूषण से शरीर को सुशोभित कर, आँखों में अञ्जन आदि लगाकर, पुष्प और सुगन्धित द्रव्य से सुवासित तथा स्वस्थचित्त हो पति के साथ शयन करे।
समायां निशि पुत्रः स्याद्विषमायां तु कन्यका। वीर्याधिक्येन पुत्रः स्याद्रक्ताधिक्येन पुत्रिका॥१६॥
खटायां भ २, प १, प२॥ सौगन्ध्यवासिंत्ता भ २, प १, प २।। शेरतेपतिनासह भ १, भ २, प १, प २॥ पुत्राः भ २, प २॥
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