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लघ्वर्हन्नीति
जिनोपवीत धारण, तीर्थ एवं औषधियुक्त जल से स्नान आदि सभी पूर्व की भाँति करना चाहिए। इसके बाद वह शुद्ध होकर पंक्ति में बैठने के योग्य होता है।
अग्नि में गिरने से हुई अस्वाभाविक मृत्यु तथा इसी प्रकार के अन्य कारणों से हुई दुष्काल मृत्यु से उत्पन्न दोष की शुद्धि के लिए जिन शासन में इस प्रकार दण्ड बताया गया है - पचास एकाशनायें, पच्चीस उपवास, दस आयम्बिल, तीन प्रसिद्ध तीर्थों की यात्रायें, तीन साधर्मिक वात्सल्य और जाति भोजन, तीन जिनपूजा तथा सत्पात्र को उत्तम दान, गुरु और सङ्घ की पूजा और पूर्वोक्त अन्य सभी (कृत्य) सम्पादित कर शुद्ध होना चाहिए अन्यथा पंक्ति से बहिष्कार करना चाहिए। जिसने ब्रह्म-हत्या आदि किया हो उसकी शुद्धि के लिए यह विधान निर्धारित
है
बत्तीस उपवास, पचास एकाशनायें, वर्धमान तप के आयम्बिल, गुरु के समक्ष आलोचना क्रिया, पाँच तीर्थयात्रायें, पाँच जिन पूजा, सङ्घपूजा, गुरुभक्ति, साधर्मिक वात्सल्य, ज्ञान का मान, जाति का मान, सात क्षेत्रों में धन-व्यय, शुद्ध भाव से पात्र दान कर पवित्र होवे नहीं तो जाति के बहिष्कृत किया जाये।
अन्यथा पंक्तिहीनः स्यात् ज्ञातिदण्ड्यो हि सर्वथा। आद्यवर्णत्रयाणां च शूद्रादीनां प्रसङ्गतः॥२४॥ भवेन्मिभं चान्नपानं तस्य शुद्धिरियं स्मृता। पूजैका तीर्थयात्रैका नवाचाम्ला निरन्तरम्॥२५॥ पात्रदानं सङ्घभक्तिर्गुरुभक्तिश्च निर्मला। एवं कृत्वा विमुक्तः स्यात् ज्ञातिदण्डेन नान्यथा॥२६॥ मिथ्यादृक् शूद्रसंसक्तं भोजनं यस्य सम्भवेत्। तस्य शुद्धयै जिनैः ख्याता आचाम्लानां च विंशतिः॥२७॥ द्वादशोपवासानि स्युस्त्रिंशदेकाशनानि च। सङ्घसेवा पात्रदत्तिर्गुरुसेवा तथा परा॥२८॥ तीर्थयात्रात्रिकं ज्ञातिभोजनं जिनपूजनम्।
एवंकृते भवेच्छुद्धो ज्ञातिबाह्योऽन्यथा भवेत्॥२९॥ प्रथम तीन अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्गों का प्रसङ्गवश शूद्रादि वर्गों के साथ भोजन-पान यदि मिश्र हो जाय तो उसकी शुद्धि इसप्रकार कही गयी है -
एक पूजा, एक तीर्थयात्रा, निरन्तर नौ आयम्बिल, योग्य व्यक्ति को दान,