________________
स्त्रीपुरुषधर्मप्रकरणम्
१९९
पुरुष दोनों हाथ से सिर का खर्जन न करे, न ही अस्पृश्य का स्पर्श करे और न ही सिर को छोड़कर स्नान करे।
रतेश्चान्ते' चिताधूमस्पर्श दुःखप्रदर्शने।
क्षौरकृत्ये वमे पञ्च स्नायात्पूतजलैर्नरः॥४३॥ सम्भोग के बाद, चिता के धुंए का स्पर्श करने, दुःख प्रदर्शन करने, क्षौर कर्म और वमन के पश्चात् पुरुष पवित्र जल से स्नान करे।
इत्यादिगुणसम्पन्नः स्वधर्मे तत्परः सुधीः। ब्राह्म मुहूर्ते चोत्थाय प्रभुं पञ्चनमस्कृतिम्॥४४॥ स्मृत्वा भूत्वा शुचिः कृत्वावश्यकादिक्रियां नरः। शौचस्नानादिकं कृत्वा अर्चित्वा जिनपद्युगम्॥४५॥ नत्वा गुरुं धर्मशास्त्रं श्रुत्वा नियममाचरेत् ।
ततः स्वोचितव्यापारे प्रवृत्तो मानवो भवेत्॥४६॥ उपर्युक्त गुणों से युक्त, स्वधर्म में संलग्न बुद्धिमान् मानव ब्रह्म मुहूर्त में उठकर पञ्चपरमेष्ठि को नमस्कार कर, स्मरण (ध्यान) कर, पवित्र होकर, आवश्यकादि क्रिया कर, शौच स्नानादि कर, तीर्थङ्कर के युगल चरणों की पूजाकर, गुरु को नमस्कार कर और धर्म- शास्त्र सुनकर नियम का आचरण करे, तत्पश्चात् अपने उचित व्यापार में प्रवृत्त हो।
धर्मकर्माविरोधेन सकलोऽपि कुलोचितः।
निस्तन्द्रेण विधेयोऽत्र व्यवसायः सुमेधसा॥४७॥ पुरुष आलस्य रहित होकर सद्बुद्धि से धर्म और कर्म के अनुकूल, कुल परम्परा के अनुरूप सम्पूर्ण व्यवसाय को सम्पादित करे।
धर्मराज्यं विरुद्धं लोकविरुद्धं च यद्भवेत्।
तत्कृत्यं न हि कुर्याद्वै "बहुलाभेऽपि सर्वथा॥४८॥ जो कार्य धर्म, राज्य और लोक के प्रतिकूल हो सब प्रकार से प्रचुर लाभदायक होने पर भी उसे न करे।
१. रतेवान्ते भ १, प १, रत्तेवान्ते भ २, प२॥ २. दुःखप्रदशर्न प २॥ ३.. माचरे भ २, प १, प२॥
लौकवि०भ २, प १, प२॥ कुस्नाने भ १, भ२, प १, प २॥