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स्त्रीपुरुषधर्मप्रकरणम्
बालत्वे रक्षकस्तातो यौवने रक्षकः पतिः ।
वृद्धत्वे 'सति सत्पुत्रः स्त्री स्वाधीना भवेन्नहि॥४॥
बालावस्था 'स्त्री का रक्षक पिता होता है, युवावस्था में रक्षक पति होता है, वृद्ध होने पर पुत्र रक्षा करता है, निश्चित रूप से स्त्री (कभी) स्वतन्त्र नहीं होती है।
अतीचाराद्वधैर्नित्यं रक्षणीया कुलाङ्गना।
आतुर्यवासरं कस्याप्यास्यं पश्ये 'दृतौ न हि ॥५॥
बुद्धिमानों द्वारा कुलीन स्त्रियों की अतिचार (मर्यादा उलङ्घन) से सदैव रक्षा की जानी चाहिए। ऋतु (रज - स्राव) में पूरे चार दिनों तक कोई भी इसका (मुख) न देखे।
चतुर्थदिवसे स्नात्वेक्षेतास्यं पत्युरेव
च।
ऋतुस्नाने न पश्येत्स्त्री परभर्त्यमुखं कदा ॥ ६ ॥
चौथे दिन स्नान के समय अपने पति का ही मुख देखे । रजोदर्शन के बाद (ऋतु-) स्नान कर वह कभी अन्य पुरुष का मुख न देखे ।
यतः क्योंकि
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स्नानकाले निरीक्षेत सुरूपं च विरूपकम् ।
पुरुषं जनयेत्पुत्रं तदाकारं मनोरमा ॥७॥
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स्नानकाल में वह सुन्दरी सुन्दर या असुन्दर जैसे पुरुष का मुख देखेगी वैसे ही आकार का पुत्र उत्पन्न करेगी।
यादृश मुप्यते बीजं क्षेत्रे कालानुसारतः । तत्पर्यायगुणैर्युक्तं तादृगुत्पद्यते फलम्॥८ ॥
उचित समय पर खेत में जैसा बीज बोया जाता है - पर्याय गुण से युक्त उसी प्रकार का फल उत्पन्न होता है। .
यद्यज्जातीयपुरुषं
नरम्।
यद्यत्कर्मकरं पश्यति स्नानकाले सा तादृशं जनयेत्सुतम् ॥९॥
स्नान के समय जिस-जिस जाति तथा जिस-जिस कार्य को करने वाले पुरुष का मुख वह देखती है उसी प्रकार का पुत्र उत्पन्न करती है।
वृद्धत्वेवति भ १, २, १, २ ॥ आतुर्यवारंभ १, भ २ प १, २ ॥
० दतोनहि भ १, भ २, ०दतौनहि प १ प २ ॥
वप्यते भ १, भ २, प १, प २ ॥