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साहसप्रकरणम्
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प्रस्था' दिवट्टान्निर्माता भिन्नान् राजप्रचारतः।
पणस्य हानौ वृद्धौ वा दण्ड्यो द्विशतराजतैः॥३१॥ राजा द्वारा प्रचलित बाट से भिन्न बाट का निर्माता जिससे व्यापार में हानि या वृद्धि हो उसे दो सौ रजत मुद्राओं से दण्डित किया जाना चाहिये।
परस्परानुमत्या 'यो वणिग् वस्तुमहर्घताम्।
करोति चेत्समे दण्ड्याः प्रोक्ता उत्तमसाहसैः॥३२॥ व्यापारी आपसी स्वीकृति से वस्तु का मूल्य बढ़ाकर बेचता है उसे उत्तम अपराध के समान दण्ड देना चाहिये।
एवं संक्षेपतः प्रोक्ता साहसस्य च वर्णना।
यत्फलज्ञानतो जीवाः स्युस्तत्त्यागसमुद्यताः॥३३॥ इस प्रकार साहस का संक्षेप में वर्णन है जिसका फल जानते हुये लोग उसके त्याग की ओर तत्पर हों।
॥ इति साहसप्रकरणम्॥
३. ४.
दिवदान्नि० भ १, भ २, प १, प२॥ ज्ञो वाः भ १, ज्ञो याः भ २, प १, प२॥