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तृतीय अधिकार
स्वामिभृत्यविवादप्रकरणम् वासुपूज्यजिनं स्तुत्वा दुष्टारातिविनाशकम्।
स्वामिभृत्यविवादोऽत्र संक्षेपेणाभिधीयते॥१॥ दुष्ट शत्रुओं के विनाशक तीर्थङ्कर वासुपूज्य की स्तुति कर स्वामी तथा नौकर के विवाद का यहाँ संक्षेप में कथन किया जाता है।
(वृ०) पूर्वस्मिन्प्रकरणे क्रेयविक्रेयपरीक्षाकालावधिरभिहितस्तत्र परीक्षिताः क्रीतगोमहिष्यादयोऽपि भवन्ति तश्चारणार्थं नियुक्तभृत्यदोषे वादः स्यादतो तद्वर्णनोऽभिधीयते -
पूर्व प्रकरण में क्रय और विक्रय की जाने वाली वस्तु की परीक्षा की समय-मर्यादा का कथन किया गया है। परख कर खरीदे गये पशुओं में गाय-भैंस आदि भी होते हैं, उनको चराने के लिए नियुक्त सेवकों के दोष के कारण विवाद होता है अतः उसका वर्णन किया जाता है
महिषी त्वष्टमाषैश्च परशस्यविनाशिनी।
दण्ड्या तदः सुरभिस्तस्याप्यर्द्धरजात्वविः॥२॥ दूसरे के (खेत में प्रवेश कर) फसल को नष्ट करने वाली भैंस पर आठ मासा, गाय पर उसका आधा (चार मासा) और बकरी पर इस (चार मासा) का आधा अर्थात् दो मासा दण्ड लगाना चाहिए।
(वृ०) माषश्च ताम्रपणस्य विंशतिमो भागः। मासा (का मूल्य) ताँबे के सिक्के का बीसवाँ भाग होता है। अपराधाधिक्ये तु दण्डाधिक्यं स्यादित्याहुः - अपराध की अधिकता होने पर दण्ड की अधिकता का कथन -
अवत्सानां स्थितानां च चरित्वा तत्र पूर्वतः। दण्डः स्याद्विगुणस्तासां सवत्सानां चतुर्गुणः॥३॥