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लघ्वर्हन्नीति
(वृ०) यदुक्तं बृहदहन्नीतौ - जैसा कि बृहदहन्नीति में कहा गया है -
किसिवाणिज्जपसूहिं जं लाहो हवइ तस्स दसमस्सं दावेइ निवो भिच्चं अणिच्छिए वेज्जणे तस्स।१।
यदि वेतन निर्धारित न हो तो कृषि, वाणिज्य और पशुओं द्वारा हुए लाभ का दसवाँ हिस्सा राजा नौकर को दिलवाये।
व्यापारे स्वामिवित्तस्य हानिवृद्धिकरः स्वयम्।
योऽस्ति तस्मै भृतिया स्वामिवाञ्छानुसारतः॥१९॥ व्यापार में स्वामी के धन में हानि अथवा वृद्धि करने वाला यदि स्वयं नौकर है तो स्वामी द्वारा अपनी इच्छानुसार उसे वेतन देय है।
(वृ०) हानौ हीनां वृद्धावधिकां चानिश्चितवेतनत्वात् स्वच्छन्दत्वाच्च तस्य।
यदि नौकर का वेतन निर्धारित न हो तो स्वामी हानि होने पर न्यून वेतन और वृद्धि होने पर अधिक वेतन देने के लिए स्वतन्त्र है।
अनेककृतकार्ये तु दद्याभृत्याय वेतनम्।
यथाकर्म तथा साध्ये देयं तस्मै यथाश्रुतम्॥२०॥ अनेक (सामूहिक रूप से नौकरों द्वारा) किये गये कार्य के लिए नौकर को वेतन उसके कार्य के अनुसार, सम्पन्न कार्य तथा शर्त के अनुरूप दिया जाना चाहिए।
(वृ०) अथ भृत्यदण्डमाह - इसके पश्चात् नौकर के दण्ड के विषय में कथन
सम्प्राप्ते वेतने भृत्यः स्वकं कर्म करोति न। द्विगुणेन च स दण्ड्योऽप्राप्ते भृतिसमेन च॥२१॥ वेतन प्राप्त हो जाने पर यदि नौकर अपने सौंपे गये कार्य को नहीं करता है तो उसे दुगुना और (सौंपे गये कार्य के बदले) यदि वेतन न मिला हो तो मजदूरी के बराबर दण्ड दिया जाना चाहिए।
अनेकसाध्ये कार्ये तु देयं भृत्याय वेतनम्।
यथाकार्यं तथासिद्धे सिद्धे देयं यथाश्रुतम्॥२२॥ अनेक (नौकरों द्वारा सम्पन्न) कार्य में यदि कार्य सिद्ध न (अपूर्ण) हो तो किये गये कार्य के अनुसार नौकर को वेतन देय है। कार्य पूरा होने पर शर्त के अनुसार वेतन देय है।