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दायभागप्रकरणम्
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पिता स्वयं उपार्जित द्रव्य, अचल तथा द्विपद रूप सम्पत्ति को पुत्र के गर्भस्थ होने तथा स्तनपान करने वाला होने पर भी न (दूसरे को) दे सकता है और न विक्रय कर सकता है।
वाला जातास्तद्वाजाता अज्ञानाश्च शवा अपि।
सर्वे स्वजीविकार्थं हि तस्मिन्नंशहराः स्मृताः॥९॥ पुत्र शिशु हो, उत्पन्न हुआ हो अथवा गर्भस्थ हो, अबोध हो या निर्माल्य - देवता को समर्पित हो - ये सभी अपनी जीविका के लिए उसमें (पिता के द्रव्य में) अंशहर अर्थात् हिस्सा धारण करने वाले कहे गये हैं।
आप्राप्तव्यवहारेषु तेषु माता पितापि वा।
कार्ये त्वावश्यके कुर्यात्तस्य दानं च विक्रयम्॥१०॥ यदि पुत्र व्यवहार (व्यापार) में संलग्न हों तो उनके माता अथवा पिता भी आवश्यक कार्य होने पर उसका दान और विक्रय कर सकते हैं।
(वृ०) धर्मज्ञातिकुटुम्बकार्यार्थमापन्निवृत्यर्थं च मातापि पितापि च स्थावरधनस्य दानं विक्रयं च कर्तुं शक्नोति। अत्र मातृपितृशब्दस्योपलक्षणत्वेन भ्राताप्येकोऽनुमतिदानसमर्थेषु शेषबालभ्रातृष्वावश्यककार्ये दानादि कर्तुं समर्थ एव बोध्यम्।
धर्म, जाति तथा परिवार के कार्य और सङ्कट के निवारण के लिए माता और पिता भी अचल सम्पत्ति का दान तथा विक्रय कर सकते हैं। यहाँ माता-पिता शब्द के उपलक्षण से एक ज्येष्ठ भाई भी अनुमति देने में सक्षम है। शेष बालक रूप भाई (अनुमति देने में सक्षम नहीं किन्तु) आवश्यक कार्य दानादि करने में उन्हें समर्थ जानना चाहिए।
दुःखागारे हि संसारे पुत्रो विश्रामदायकः।
यस्मादृते मनुष्याणां गार्हस्थं च निरर्थकम्॥११॥ दुःख के निवास रूप संसार में पुत्र विश्राम देने वाले हैं, जिस पुत्र के बिना मनुष्यों का गृहस्थ जीवन निरर्थक है।
यस्य पुण्यं बलिष्ठं स्यात्तस्य पुत्राः अनेकशः।
सम्भूयैकत्र तिष्ठन्ति पित्रोः सेवासु तत्पराः॥१२॥ जिसका पुण्य बलवान है उसके अनेक पुत्र होते हैं और वे एकसाथ रहकर माता-पिता की सेवा में तत्पर होते हैं।
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शेवासु भ १, भ २, प १, प २॥