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दण्डनीतिप्रकरणम्
क्षुद्र जीवों के विनाश पर दो सौ द्रम्म (का दण्ड) निर्धारित है। वन्य पशुओं और पक्षियों का विनाश करने वाला पचास मुद्रा (दण्ड) का भागी हो । पञ्चमाषैस्तु दण्ड्यः स्यादजाविखरघातकः ।
मान दण्डयश्च श्वशूकरविनाशकृत् ॥१४॥
बकरा, भेड़ और गधे को मारने वाला पाँच माशा ( माष) सिक्कों के दण्ड का पात्र है, कुत्ता एवं शूकर को मारने वाले को दो माशा से दण्डित करना चाहिए। अभक्ष्यभक्षके विप्रे दण्ड उत्तमसाहसम् ।
क्षत्रिये मध्यमं वैश्येऽन्त्यं शूद्रे त्वर्द्धकं भवेत् ॥ १५ ॥
अभक्ष्य पदार्थ का भक्षण करने वाले ब्राह्मण को उत्तम साहस (अपराध करने) का दण्ड, क्षत्रिय को मध्यम (अपराध करने का दण्ड), वैश्य को अन्त्य ( अपराध करने का दण्ड) और शूद्र को (वैश्य के दण्ड का) आधा दण्ड देना चाहिए |
नृपस्याक्रोशकर्त्तारं
भेत्तारं
नृपमन्त्रस्य
भूपप्रतीपतापन्नं जिह्वां छित्वा प्रवासयेत् ।
उत्तमेन च दण्ड्यः स्याद्राजाज्ञालेखकः स्वयम्॥१७॥
तस्यैवानिष्टभाषिणम्। राजकोषापहारकम्॥१६॥
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राजा की निन्दा करने वाले, उसका अमङ्गल भाषण करने वाले, राजा की मन्त्रणा (के रहस्य) को उजागर करने वाले, राजकोष की चोरी करने वाले और राजा से शत्रुता करने वाले की जिह्वा काटकर (देश से) निर्वासित करना चाहिये। राजाज्ञा के लेखक (राजा के कूट हस्ताक्षर द्वारा) को उत्तम (अपराध के दण्ड) से दण्डित करना चाहिए।
स्वस्त्रीकलङ्कभीत्या च राजदण्डभयेन च । शतपञ्चकदण्ड्यः स्याज्जारञ्चौर इति बुवन् ॥१८॥
अपनी पत्नी के कलङ्कित होने और राजा द्वारा दण्ड के भय से (घर में ) जार ( उपपति) के होने पर (उसे) चोर बताने वाले को पाँच सौ मुद्राओं से दण्डित करना चाहिए।
उपजीव्यधनं लुञ्चन् दण्ड्यश्चाष्टगुणैस्ततः । उत्तमेन भवेद्दण्ड्यश्चौरं जारं च मुञ्चतः ॥१९॥
भृत्यादि का धन हरण करने वाले को (धन का) आठ गुना दण्ड देना चाहिए। चोर और जार को मुक्त करने वाले को उत्तम (अपराध का) दण्ड होता है।