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लघ्वर्हन्नीति
तद्देववह्नियात्रापोगुरूणां नियमात्क्रमात्।
द्विजक्षत्रियवैश्येभ्यः शपथं कारयेत्ततः॥६४॥ यदि वादी तथा प्रतिवादी दोनों पक्ष के साक्षी न हों तो उन दोनों पक्षों के तत्त्व को न जानता हुआ राजा शपथ कराये। ब्राह्मणों, क्षत्रियों एवं वैश्यों से नियम से क्रमशः उनके देव, अग्नि, यात्रा, जल और गुरु की शपथ ग्रहण करनी चाहिए।
मासपक्षावधिं कृत्वा कारयेच्छपथं नृपः। तज्जाधिव्याधिवह्नयापोमरणं जायते न चेत्॥६५॥ लोकाधिकारिभिर्दिव्यं प्रमाणमिति मन्यते।
सत्यमंतर्भवेत्कष्टं तच्चेद्भवति चान्यथा॥६६॥ मास अथवा पक्ष की मर्यादा कर राजा शपथ दिलवाये, उस अवधि में शपथकर्ता को आधि, व्याधि, अग्नि और जल सम्बन्धी (पीड़ा) अथवा मरण यदि न हो तो अधिकारियों को उसे (पीड़ा को) दिव्य प्रमाण रूप मानना चाहिए। सत्ययुक्त हो तो ठीक है अन्यथा (झूठ होने पर) उसे अवश्य ही कष्ट होता है।
महीपालस्ततः सम्यक् परीक्ष्योभयसत्यताम्।
सभ्यसंमतिमादाय वदेज्जयपराजयौ॥६७॥ तत्पश्चात् राजा दोनों पक्षों की सत्यता का सम्यक् परीक्षण कर सदस्यों की सम्मति लेकर जय और पराजय के विषय में निर्णय दे।
इत्थं समासतः प्रोक्तो व्यवहारविधिक्रमः।
यस्य स्मरणमात्रेण मानवो वञ्च्यते न कैः।।६८॥ इस प्रकार संक्षिप्त रूप से व्यवहार विधि का क्रम कहा गया जिसके स्मरणमात्र से मनुष्य किसी के द्वारा ठगा नहीं जा सकता है।
॥ इति व्यवहारकृतिप्रकरणम्।।