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ऋणादानप्रकरणम्
( वृ०) आधिविषये कथं मिषं ग्राह्यमित्याह
सौवर्णं राजतं चाधिं लात्वा चेद्रौप्यमुत्सृजेत् ।
राजतेऽर्द्धांशमादेयं
सौवर्णे
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यदि स्वर्ण और चाँदी का आधि लेकर रुपया दिया हो तो चाँदी का (आधि रहने पर) आधा रुपया और सोना का (आधि रहने पर) चौथाई रुपया ब्याज लेना
चाहिए।
१.
तुर्यमंशकम् ॥३७॥
(वृ०) अधमर्ण आवश्यककार्यवशेन मुद्राद्वयं दत्वा शतमुद्रा गृह्णाति तत्कृत्ये राज्यगते उक्तमिषमेव दास्यति तथाहि
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अधमर्णः स्वयं लाति मिषमुक्ता ततोऽधिकम् । नृपान्तिकं गतवादे तूत्तमर्णनिरूपणात्॥३८॥ नृपो लेखं निरीक्ष्यैव विवेच्य सहसाकृतिम् । न्यायादुक्तमिषं चैव दापयेदधमर्णकात्॥३९॥ गोऽजाविमहिषीदासाश्चाधिं कृत्वा गृहीतर्णः । पुनर्दातुमशक्तश्चेन्न याचेताधिमृक्थिनः ॥ ४० ॥
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ऋणी (यदि) स्वयं उस उपरोक्त नियत से अधिक ब्याज कहकर धन लाता है तो राजा के पास वाद के पहुँचने पर राजा लेख का निरीक्षण और कृत्य का विवेचन कर न्यायपूर्वक कथित ब्याज को ही ऋणी से दिलवाये। गाय, बकरी, अवि, भैंस और दास को आधि देकर ऋणी रुपया ले और पुनः (ऋण) वापस करने असमर्थ हो जाय तो ऋणदाता से आधि न माँगे ।
गवाद्याधिविषयमाह
पूर्णेऽवधौ पुनः प्राप्ते वित्तं गृह्णाति ऋक्थिनो । अधमर्णस्थापितं यावत्तावद्गृह्णाति सर्वशः ॥ ४१ ॥ धनी नो दद्याद् वृद्धिं तु ऋणी गृह्णाति नैव ताम् । भक्ष्यमूल्ये प्रदत्तेऽपि नैव दद्याद्धनी तकाम्॥४२॥
जब अवधि पूर्ण हो जाने पर पुनः ऋणी के पास धन हो जाने पर धनवान धन ग्रहण करता है तब ऋणी अपनी स्थापित सब आधि ग्रहण कर लेता है। धनवान् यदि वृद्धि (अर्थात् आधि रूप गाय, भैंस के बछड़े आदि सहित) ऋणी को न दे तो वह उसे ग्रहण न करे। साथ ही यदि ऋणी ने चारे आदि का मूल्य दिया हो तो वह धनी को न दे।
विवेच्य भ १, भ २, प१प २ ॥