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लघ्वर्हनीति
स्वामी की अनुपस्थिति में दास द्वारा किये गये ऋण को स्वामी वापस करे, इसका कथन -
प्रभ्वसत्वे कुटुम्बार्थमृणं दासेन यत्कृतम्।
तत्स्वामी वितरेत्सर्वं समिषं च ससाक्षिकम्॥५४॥ स्वामी की अनुपस्थिति में कुटुम्ब के लिए दास द्वारा जो ऋण लिया गया है उसे स्वामी ब्याज सहित और साक्षी के सम्मुख वापस करे।
(वृ०) बलेन कारितं लेखं व्यर्थमित्याह - बलपूर्वक कराया गया लेख व्यर्थ है, यह कथन -
ऋक्थिनो स्वगृहे कस्माद्गुप्तं लेखं न कारयेत्।
भूम्याद्याधियुतं दत्तं सर्वं तच्च वृथा भवेत्॥५५॥ धनवान अपने घर में कोई गुप्त लेख न कराये भूमि आदि आधि से युक्त जो कुछ भी दिया गया वह व्यर्थ हो जाता है।
(वृ०) योग्यं त्यक्त्वायोग्यं गृह्णन् भूपो निन्द्यो भवतीत्याह -
योग्य का त्यागकर अयोग्य का ग्रहण करने वाला राजा निन्दनीय होता है - यह बताया -
न गृह्णीयादनादेयं क्षीणशक्तिरपि प्रभुः। समृद्धोऽपि न चादेयमल्पमप्यर्थमुत्सृजेत्॥५६॥ ग्राह्यस्याग्रहणाद्भयोऽग्राह्यस्य ग्रहणादपि।
लोके निन्दामवाप्नोति प्रत्युतो निर्धनो भवेत्॥५७॥ शक्तिहीन होने पर भी स्वामी अदेय (ग्रहण न करने योग्य) वस्तु ग्रहण न करे और समृद्ध होने पर भी अदेय थोड़ी भी वस्तु का त्याग न करे। ग्रहण करने योग्य वस्तु के ग्रहण न करने और ग्रहण न करने योग्य वस्तु के ग्रहण करने से संसार में निन्दा होती है और उल्टे निर्धन होता है।
(वृ०) स्थानमार्गविषयमाह - स्थान-मार्ग के विषय में कथन -
द्वारमार्गविवादेषु जलश्रेणिप्रवृत्तिषु। भुक्तिरेव हि गुर्वी स्यान्न दिव्यं न च साक्षिता॥५८॥ सर्वार्थाभिनियोगे च बलिष्ठा पूर्वजा क्रिया।
आधौ प्रतिग्रहे कुप्ये साक्षिणां च प्रधानता॥५९॥ १. ऋक्थीनो प १॥