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लघ्वर्हन्नीति
सप्रतिज्ञं धृतं यच्चेत् गोमहिष्यादिकं वसु । रौप्यान्दत्वा गृहीष्यामि पूर्णे काले तवैव तत्॥४३॥
यदि ऋणी इस प्रतिज्ञा के साथ गाय, भैंस आदि धन (आधि रूप में) स्थापित करता है कि अवधि पूर्ण होने पर रुपया देकर ही उसे ग्रहण करूँगा । यदि ऋण्याधिश्चौरैर्हियते तदा धनी तन्मौल्यं ऋणिनो देयात् तदाह हृते चौरैर्गोधनस्तूत्तमर्णिकः ।
मध्ये तत्र तन्मौल्यं सकलं दत्वा स्वमादत्तेऽधमर्णकात्॥४४॥
अवधि के मध्य में ही (आधि रूप ) स्थापित गोधन का चोरी हो जाने पर धनी व्यक्ति उसका सम्पूर्ण मूल्य चुकाकर ऋणी से अपना धन ग्रहण कर लेता है।
वस्त्राधिविषयमाह
न भोक्तव्योंऽशुकाद्याधिर्धनिना सुखमिच्छता । अन्यथा मौल्यं प्रदेयं स्यान्मिषहानिर्भवेत्पुनः ॥४५॥
ऋक्थी वासांसि भूषांश्च भुङ्क्ते चेदाधिरूपतो । दृष्ट्वा ऋणी न वक्तीति न तदा मौल्यामाप्नुयात् ॥४६॥
धनवान सुख की इच्छा से (आधि रूप स्थापित) वस्त्रादि का उपभोग न करे अन्यथा उसका मूल्य देय होगा और पुनः ब्याज में भी हानि होगी। धनी द्वारा वस्त्रों, आभूषणों आदि का उपभोग करने पर यदि सामने देखकर ऋणी कुछ नहीं बोलता है तब वह मूल्य न ले।
क्षेत्रग्रामतडागादि बालस्वं दासदासिका । भुज्यमाना नश्यन्ति तद्वृद्धिर्धनिनः स्मृता ॥४७॥
खेत, ग्राम, तालाब आदि, वाड़ी रूप धन, दास, दासी उपयोग में लाने पर नष्ट नहीं होते हैं उनकी वृद्धि धनी की वृद्धि कही गई है।
धान्याविषयमाह
प्रतिमासं धान्यवृद्धिः प्रस्थयुग्मं मणं प्रति । प्रतिज्ञान्ते न शक्नोति दातुं वृद्धिमृणं च चेत् ॥ ४८ ॥ पुनर्वृद्धेश्च वृद्धिः स्यान्मध्ये किञ्चिद्ददाति नो । सार्द्धवर्षे व्यतीते तु तद्धान्यं द्विगुणं भवेत्॥४९॥
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(ऋण के रूप में लिए हुए) धान्य पर दो प्रस्थ प्रतिमास प्रत्येक मन पर ब्याज लेना चाहिए। प्रतिज्ञा के अनुसार यदि ऋणी ब्याज देने में समर्थ न हो और मध्य