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लघ्वर्हन्नीति
के लिए वादी के द्वारा साधन का कथन किया जाता है वहाँ ही वादी के साधित पक्ष का खण्डन कर अपनी बाधक उक्तियों के समर्थन में प्रतिवादी द्वारा प्रयुक्त एकहेतुभूत वचनों की सङ्गति परस्पर विरोधी (व्याघात) होने से कैसे बैठ सकती
शङ्कासमाधानम् चेन्न स्वस्वाभिप्रायानुसारेणैकस्मिन्वस्तुनि वादिप्रतिवादिनिरूपितसाधनदूषणप्रतिपादकवचनकथने विरोधाभावात्। यथा वादी स्वाभिप्रायेण साधनमभिधत्ते पश्चात् प्रतिवाद्यपि स्वाभिप्रायेण तत्रैव दूषणं प्रणिगदति न चात्रेकवस्तुनि साधनं दूषणं च तात्त्विकमस्ति किन्तु स्वाभिप्रायकल्पितमेवेत्यलम्।
ऐसा नहीं है (अर्थात् वादी और प्रतिवादी के साधक और बाधक वचनों में परस्पर व्याघात नहीं होता है) अपने-अपने अभिप्राय के अनुसार एक वस्तु में वादी और प्रतिवादी द्वारा निरूपित (क्रमशः) साधन और दूषण के प्रतिपादक वचनों के कथन में विरोध का अभाव होने से। जैसे वादी अपने अभिप्राय से साधन का कथन करता है पश्चात् प्रतिवादी भी अपने अभिप्राय से उसी में दूषण का कथन करता है, वस्तुतः यह एक ही पदार्थ में साधन का दूषण नहीं है अपितु स्वाभिप्राय (अर्थात् वादी तथा प्रतिवादी के अभिप्राय) के अनुसार है। व्यवहारभाष्ये तु -
अत्थी पच्चत्थीणं, हाउं एगस्स ववति बितियस्स।
एतेण उ ववहारो, अधिगारो एत्थ उ विहीए॥ एक से अर्थात् प्रत्यर्थी से हरण कर दूसरे को अर्थात् अर्थी में वपन कर देना व्यवहार है। इसमें हरण और वपन दोनों क्रियाएं होती हैं इसलिए इसे व्यवहार कहा जाता है। (व्यवहार विधि पूर्वक भी होता है और अविधिपूर्वक भी)। ___स द्विविधः लोकोत्तरो लौकिकश्च। तत्राद्यो व्यवहारसूतादिषु वर्णितत्वादन नोक्तः
वह व्यवहार लोकोत्तर और लौकिक दो प्रकार का होता है। व्यवहारसूत्र आदि ग्रन्थों में प्रथम अर्थात् लोकोत्तर व्यवहार का वर्णन होने से (उसका यहाँ वर्णन) नहीं किया गया है।
इह राजकर्मणि लौकिकस्यैवाधिकारः, स तु द्विविधः। (इस स्थल में वर्ण्यविषय) राजकर्म होने से लौकिक व्यवहार का अधिकार है। लौकिक व्यवहार दो प्रकार का है।