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युद्धनीतिप्रकरणम्
जये च लभ्यते लक्ष्मीर्मरणे च सुराङ्गना । क्षणविध्वंसिनः कायश्चिन्ता का मरणे रणे ॥ १६ ॥
युद्ध में विजय प्राप्त होने पर लक्ष्मी प्राप्त होती है और मृत्यु प्राप्त होने पर स्वर्ग की अप्सरा (प्राप्त होती है)। क्षणभर में नष्ट हो जाने वाली इस काया के लिए युद्ध में मरने की क्या चिन्ता करना ।
(वृ०) अथ सामाद्युपायचतुष्कस्वरूपं वर्ण्य
इसके बाद साम आदि चार उपायों का वर्णन किया जाता है
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कार्यसिद्धिः प्रियालापैः साम दानेन दाम च । भिन्नताकरणं भेदो मिथो राज्याधिकारिषु ॥१७॥
प्रिय वचनों से कार्य की सिद्धि करना साम, दान से (कार्य - सिद्धि) दाम, राज्य के अधिकारियों में परस्पर फूट डालकर (कार्य सिद्धि) भेद है।
दण्डो हि वधपर्यन्तोऽपकारः प्रतिपन्थिनाम् । स्यादुपायो नरासाध्ये कार्ये कार्योऽन्यथा न च ॥ १८ ॥
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शत्रुओं का (छोटे से लेकर) वध पर्यन्त अपकार दण्ड है। इसके बाद साम, दाम और भेद से जो कार्य साध्य न हो उसी को दण्ड उपाय से करना चाहिये अन्यथा नहीं करना चाहिये ।
( वृ०) सत्कारादरप्रीतिसम्भाषणादिभिः सान्त्वनं साम । स्वर्णेभवाजिराजतादि दानेन कार्यसाधनं दाम । द्रव्यादिलो भदर्शनेन वाग्चातुर्येण वामात्यादीनाम् परस्परचित्तभेद - तापादनं भेदः ।
धनहरणवधबन्धनादिरूपोऽपकारो
दण्डः।
दाम ।
आदर, सत्कार तथा प्रीतियुक्त वचन आदि से सान्त्वना देना सोना, हाथी, घोड़ा, चाँदी आदि द्रव्य के दान से कार्य का सम्पादन द्रव्यादि का लोभ दिखाकर अथवा वाणी के चातुर्य से अमात्य आदि को फोड़ना – भेद ।
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साम ।
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धन का हरण कर लेना, वध करना, बन्धन आदि रूप अपकार अथसामदामभेदसाध्ये युद्धं न विधेयमन्यत्र विधेयमिति दर्शयन्नाह -
दण्ड ।
इसके पश्चात् साम, दाम और भेद के साध्य होने पर युद्ध नहीं करना चाहिए, इसके अभाव में युद्ध करना चाहिए यह प्ररूपित करते हुए कथन -