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लघ्वर्हन्नीति
आत्मनश्चेन्नृपः पश्येदेष्यद्भाविफलं शुभम्।
विसह्याप्यल्पहानिं वै सन्धिं कुर्याद्भुतं तदा॥९॥ यदि राजा भविष्य में अपना शुभ परिणाम देखे तो किञ्चित् हानि सहकर भी (शत्रु के साथ) शीघ्रता से सन्धि करनी चाहिये।
बलोपचितमात्मानं तुष्टामात्यादिसंयुतम्।
यदा जानाति भूपालस्तदा कुर्याद्धि विग्रहम्॥१०॥ यदि राजा स्वयं को बढ़ी हुई सैन्य शक्तिवाला, सन्तुष्ट अमात्य आदि (अधिकारियों) से सम्पन्न समझता हो तब शत्रु से विग्रह – शत्रुता या युद्ध करना चाहिये।
विपक्षपक्षदलनोत्साहभृत्सूजितं बलम्।
पुष्टं प्रकृष्टं जानीयादरिं यायात्तदा नृपः॥११॥ यदि राजा सेना को शत्रुपक्ष का मर्दन करने के उत्साह से पूर्ण, तेजस्वी, शक्तिशाली और उत्तम समझे तब शत्रु की ओर गमन करना चाहिये।
पूर्वाजिता यदा शक्तिर्बलहीना प्रजायते।
सामदामभिदोद्युक्तस्तदासीत् प्रयत्नतः॥१२॥ पूर्व की लड़ाई से यदि सेना बलहीन हो गई हो तब राजा साम, दाम, भेद आदि युक्तियों से प्रयत्न करता हुआ स्थिर रहे।
रिपुं बलिष्ठं दुर्धर्षं यदा मन्येत भूधनः।
तदा बलं द्विधा कृता दुर्गे तिष्ठेत्समाहितः॥१३॥ जब राजा शत्रु को अतिशय शक्तिशाली और वश में न आने वाला जाने तब सेना को दो हिस्सों में विभाजित कर दुर्ग में सावधान होकर रहे।
आत्मानं यदि दुर्गोऽपि रक्षितुं न क्षमो भवेत्।
तदा बलिष्ठराजानं धर्मिष्ठं संश्रयेद् द्रुतम्॥१४॥ यदि राजा अपने दुर्ग की भी रक्षा करने में समर्थ न हो तो शीघ्रता से शक्तिशाली तथा अत्यन्त पुण्यात्मा राजा का आश्रय ले।
तत्रापि यदि शङ्का स्यात्सोऽपि त्याज्यो धुवं तदा। निःशङ्कः समरे स्थित्वा युद्वमेव समाचरेत्॥१५॥ यदि वहाँ (शक्तिशाली तथा अत्यन्त पुण्यात्मा राजा के आश्रय से) भी शङ्का हो तो निश्चित रूप से उस आश्रय का भी त्याग करना चाहिए और निःशङ्क हो रण में रहकर युद्ध ही करना चाहिए।