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लघ्वर्हन्नीति
साम्ना दाम्ना च भेदेन जेतुं शक्या यदारयः । तदा युद्धं न कर्त्तव्यं भूपालेन कदाचन ॥१९॥
यदि साम, दाम और भेद से शत्रुओं को जीतने में समर्थ हो तो राजा को कभी भी युद्ध नहीं करना चाहिए।
सन्दिग्धो विजयो युद्धेऽसन्दिग्धः पुरुषक्षयः । सत्स्वन्येष्वित्युपायेषु भूपो युद्धं विवर्जयेत् ॥ २० ॥
युद्ध में विजय सन्दिग्ध है, पुरुषों का नाश निश्चय है, अन्य उपायों के होने पर राजा युद्ध का त्याग करे ।
सामादित्रितयासाध्ये त्वनन्यगतिको नृपः ।
युद्धे प्रवृत्तिकामः स्याद्यदा तत्कृत्यमुच्यते ॥ २१ ॥
यदि सामादि तीनों उपायों से कार्य सिद्ध न हो तो राजा की गति अन्य हो अर्थात् वह अवश्य युद्ध करे। जब युद्ध करने के लिए तत्पर हो जाये तब उसे क्या करना चाहिए, वह कार्य बताया जा रहा है।
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पूर्वं
सम्प्रेष्यते सम्प्रेष्यते दूतश्चतुर्मुख उदारधीः । विपक्षव्यूहधी भावगमागमपरीक्षणे
॥२२॥
शत्रु के सैन्यव्यूह और आने-जाने वाले मार्ग के परीक्षण हेतु पहले उदार बुद्धि वाला, चतुर्मुख दूत शत्रु के पास भेजा जाता है।
सोऽपि गत्वाऽथ मधुरैः पूर्वं वाक्यैर्निवेदयेत् । तदसिद्धौ पुनब्रूयादाम्लं तिक्तं तथा कटु॥२३॥
इसके बाद वह दूत भी जाकर पहले मधुर वचनों से निवेदन करे | उन (मधुर वचनों के असफल होने पर वह पुनः आम्ल (कषैला), तिक्त और कटु वचन बोले ।
सिद्धासिद्धौ तदाकारैर्भाषणेनेङ्गितेन च। तदीयचित्ताभिप्रायं बलशक्तिं च सर्वथा ॥ २४ ॥
बुद्धिशक्तिं कलाशक्तिं निर्गमं गमनं तथा ।
सम्यक् ज्ञात्वा त्वरावृत्य यथावत् स्वामिनं वदेत् ॥ २५ ॥
उस (शत्रु पक्ष) के मनोभावों को अभिव्यक्त करने वाली शारीरिक चेष्टा, कथन तथा हाव-भाव से उद्देश्य की सफलता अथवा विफलता, सब प्रकार से शत्रु का विचार, अभिप्राय, सैन्यशक्ति, बुद्धिबल, कलाशक्ति, गमनागमन आदि की यथास्थिति जानकर शीघ्रता से वापस लौटकर दूत को अपने स्वामी से ज्यों का त्यों निवेदन करना चाहिये ।