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युद्धनीतिप्रकरणम्
मान्त्रिकेषु च शस्त्रेषु वहन्यादिषु महीधनः । तन्निवृत्तिकरास्त्राणि वारुणादीनि निक्षिपेत् ॥५७॥
राजा मन्त्रयुक्त और अग्नि आदि शस्त्रों के निवारक वरुण आदि अस्त्रों को प्रक्षेप करे ।
हृष्टत्वं च समलीनत्वं सम्यक् तेषां परीक्षयेत्।
तथा सोपधिचेष्टांश्च विपरीतांश्च सङ्गरे ॥ ५८ ॥
उनके उल्लास तथा मलिनता की सम्यक् प्रकार से परीक्षा करनी चाहिए और उनके कपट व्यवहार तथा विरुद्ध व्यवहार को युद्ध में परखना चाहिए। नातिरूक्षैर्विषाक्तैर्न नैव दृषन्मृदादिभिर्नैव
युध्येत
कूटायु' धैस्तथा । नाग्नितापितैः॥५९॥
अत्यन्त रुक्ष, विषसिक्त और कूट शस्त्रों से युद्ध नहीं करना चाहिए। पत्थर, मिट्टी और अग्नि से तपे हुए हथियारों से युद्ध नहीं करना चाहिए ।
नीतियुद्धेन योद्धव्यं सर्वैः शस्त्रैश्च वाहनैः । शत्रोरन्यायनिष्ठे तु कर्त्तव्यं समयोचितम् ॥६०॥
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सभी शस्त्रों और वाहनों से नीति युद्ध द्वारा युद्ध करना चाहिए (परन्तु ) शत्रु यदि अन्याय का आश्रय ले तब समयोचित व्यवहार करना चाहिए।
न हन्यात्तापसं विप्रं त्यक्तशस्त्रं च कातरम् ।
नश्यन्तं व्यसनप्राप्तं क्लीबं नग्नं कृताञ्जलिम् ॥ ६१ ॥ नायुध्यमानं नो सुप्तं रोगार्तशरणागतम् । मुखदन्ततृणं बालदीक्षेप्तुं च गृहागतम्॥६२॥
तापस, ब्राह्मण, शस्त्र का त्याग करने वाले, भयातुर, युद्धस्थल से पलायन करने वाले, दुर्व्यसनी, नपुंसक, नग्न, हाथ जोड़ने वाले, युद्ध न करने वाले, सोये हुए, रोगी, शरणागत, मुख में तृण धारण करने वाले, बालक, दीक्षार्थी और घर आये हुए का वध नहीं करना चाहिए।
अयुध्यमानं शत्रुं चावेष्ट्यासीतास्यधान्यजले । इन्धनादीनि सर्वाणि
दूषयेत्पीडयेज्जनम्॥६३॥
यदि शत्रु युद्ध नहीं कर रहा हो तो उसे घेरकर उसका धान्य, जल, ईंधन आदि सब दूषित करना चाहिए और लोगों को पीड़ित करना चाहिए।
०यू० १, भ२॥