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युद्धनीतिप्रकरणम्
दूतद्वारेण यज्ज्ञातं परोयोद्धुं समीहते । तदा मन्त्रिवरैः सार्द्धं मन्त्रयित्वा भृशं नृपः ॥ २६ ॥
तथा कुर्याद्यथा न स्याद्विग्रहो बहुनाशकृत्। केनापि नीतिमार्गेण सन्तोष्यः परभूपतिः ॥ २७ ॥
दूत द्वारा जो ज्ञात हुआ उसके बाद राजा यदि युद्ध की इच्छा करता है तब श्रेष्ठ मन्त्रियों के साथ बार-बार परामर्श कर राजा को वैसा कदम उठाना चाहिए जिससे युद्ध अत्यधिक विनाशक न हो। किसी भी नीति मार्ग से शत्रु राजा को सन्तुष्ट करने का प्रयास करना चाहिए।
यदि केनाप्युपायेन परस्त्यजति नो रणम् । तदा वीक्ष्य मिथः साम्यं युद्धायैवोद्यतो भवेत्॥२८॥
यदि किसी भी उपाय से दूसरा राजा युद्ध (रण) का त्याग नहीं करता है तब परस्पर समानता का परीक्षण कर युद्ध के लिए ही तत्पर होना चाहिए । बलिष्ठेन न योद्धव्यं बलिष्ठाश्रयणं विना । तद्युद्धेन जयः प्रायः क्षयश्चानुशयः सदा ॥२९॥
२३
अपने से बलवान शत्रु से बलवान राजा के आश्रय के बिना युद्ध नहीं करना चाहिए। उस (बलवान) के साथ युद्ध करने पर प्रायः विजय नहीं ( प्राप्त होती) सदा नाश तथा पश्चात्ताप ( होता है ) ।
हीनेनापि न योद्धव्यं स्वयं गत्वा च सम्मुखम् । तज्जये तु यशो न स्यात् किन्तु हानिः पराजये ॥३०॥
अपने से हीन राजा के साथ भी स्वयं सामने जाकर युद्ध नहीं करना चाहिये । क्योंकि उसके ऊपर विजय प्राप्त करने पर यश तो नहीं मिलता किन्तु पराजय होने पर हानि होती है।
( वृ०) अत्र स्वयमिति पदेनावश्यके कार्ये सेनान्यं प्रेष्य तज्जयो विधेय इत्यावेदितम्
यहाँ 'स्वयं' शब्द से आवश्यक कार्य के लिए सेनापति को भेजकर शत्रु पर विजय प्राप्त करनी चाहिए यह कहा गया है -
अथ कदा च यानं विधेयमित्याह
इसके बाद कब युद्ध हेतु प्रस्थान करना चाहिये, इसका कथन
स्वराष्ट्रदुर्गरक्षार्हप्रधानं च तथा
बलम्। संस्थाप्य च निजे राज्ये सन्तोष्यात्मीयकान् भृशम् ॥३१॥