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कातन्त्रव्याकरणम्
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'टीकाकृत्-अन्यः-शर्ववर्मा-भाष्यकार - केचित् - हेमकर- दुर्ग-पदकार' आदि आचार्यों के विविध मत । अकार का उच्चारणार्थ पाठ कहीं पर प्रकरण का अनादर, अन्वाचय अर्थ में चकार का प्रयोग, ‘ओत्’ में तकार का उच्चारण सुखार्थ, आद्यव्याकरण के अनुसार 'भृज्' धातुघटित जकार को द्वित्वविधान- 'बभृज्जे, बभृज्जाते, बभृज्जिरे । आद्यव्याकरणमेतत्। आधुनिकव्याकरणेषु नैतल्लक्षणमस्तीति भावः' । दीर्घ आदि स्वर के धर्म होते हैं ] २२. अडागम - वृद्धि - सकार- नकारादि आदेश
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४५१-६९
[ 'अकरोत् - अकार्षीत् - अकरिष्यत्' इत्यादि में अडागम, 'ऐधत' इत्यादि में आदि स्वर को वृद्धि, 'आप्नोत्' इत्यादि में धातु के आदि स्वर को आकारादेश, 'मा भवान् करोत्' इत्यादि में अडागम का निषेध, 'कृषीढ्वम्' इत्यादि में धकार को ढकारादेश, 'मार्क्ष्यति' इत्यादि में मार्जि- आदेश, 'सहते' इत्यादि में धातुपठित षकार को सकार, 'नयति' इत्यादि में धातुपठित णकार को नकारादेश । 'निर्देशसुखार्थ - उत्तरार्थ- स्वरूपग्राहकार्थस्पष्टार्थ-अभिधानार्थ-मन्दमतिबोधनार्थ-गणपाठशुद्ध्यर्थ-प्रपञ्चार्थ' विविध कार्यों की सिद्धि। 'एके - कवि - भाष्यकार - सूत्रकार - केचित् - टीकाकार- मनोरमाकार - रमानाथ' आदि आचार्यों के विविध मत । प्रकृति-प्रत्यय के समुदायरूप पद की प्रधानता- 'प्रकृतिप्रत्यययोः समुदायो हि पदं प्रधानमुच्यते' । कुछ आचार्यों के मतानुसार अवर्ण का उच्चारण मुखवर्ती सभी स्थानों से होता है - 'अवर्णः सर्वमुखस्थानमित्येके । जहाँ सुखपूर्वक बोध कराना अभीष्ट होता है वहाँ शब्दलाघव की चिन्ता नहीं होती - 'सुखपाठप्रतिपत्तिरेवाभिमतम्, शब्दलाघवम्' । तिप् प्रत्यय से किया जाने वाला निर्देश स्वरूपग्राहक के लिए होता है, संज्ञानिर्देशपूर्वक किसी कार्य का विधान अनित्य होता है, अवयव अर्थ में आदिशब्द का प्रयोग ]
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२३. षकार - अनुबन्ध - शिट्संज्ञा- सम्प्रसारणसंज्ञादि
४६९-८८
[ 'चिचीषति' इत्यादि में मूर्धन्य षकारादेश, 'आशिष' इत्यादि में षकारादेश, 'तुष्टृषति' आदि में षकारादेश, 'अङ्गाः, वङ्गाः, कलिङ्गा:' इत्यादि में लुक् शब्द का नाम लेकर लोप किए जाने पर प्रकृति को निर्दिष्ट कार्य का अभाव, 'पपतुः' इत्यादि में आकार का लोप, 'इङ्-कृञ्' इत्यादि में 'ङ् ञ्' आदि अनुबन्धों का अप्रयोग, शकारादि चार वर्णों की 'शिट्' संज्ञा, इवर्णादि की सम्प्रसारणसंज्ञा. 'अर्-ए-ओ' की गुणसंज्ञा तथा ‘आर्-ऐ-औ' की वृद्धिसंज्ञा । ‘प्रपञ्चार्थ - अवानुकर्षणार्थ- उपसर्गानुवर्तनार्थ-सुखसमासप्रतिपत्त्यर्थ - स्पष्टार्थ- पूर्वपक्षार्थ-मन्दमतिबोधनार्थ' - अनेक कार्यों का विवेचन । 'अन्ये- अपरः -वाक्यकारसूत्रकार-भाष्यकार-अन्यः - टीकाकृत् केचित्' आदि आचार्यों के विशिष्ट विचार । शिष्टजनों