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इस श्लोक का गुजराती में पद्यानुवाद चाहिए । हमने शीघ्र पद्यानुवाद
हरिगीत छंद में बनाकर भेजा :
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પ્રભુ-મૂર્તિમાં છે શું પડ્યું ? છે માત્ર એ તો પત્થરો, પ્રભુ-નામમાં છે શું પડ્યું ? છે માત્ર એ તો અક્ષરો'; એવું કહો ના સજ્જનો ! સાક્ષાત્ આ भगवान छे, નિજ મંત્ર-મૂર્તિનું રૂપ લઈ પોતે જ અહીં આસીન છે.' इस पद्यानुवाद को देखकर पूज्यश्री बहुत प्रसन्न हुए और प्रत्युत्तर आया : मेरे मन की बात ही तुमने स्पष्ट रूप से रखी है ।
पूज्यश्री की प्रसन्नता से हम भी प्रसन्न हुए 1)
उस वक्त तो कोइ कल्पना तक नहीं थी : पूज्यश्री की ये सब अंतिम देशनाएं है । कल्पना कर भी कैसे सकते थे ? क्यों कि पूज्यश्री की इतनी स्फूर्ति थी, मुंह पर इतना तेज था कि मृत्यु तो क्या बूढापा भी उन्हें छूने से डरता हो, ऐसा हमें प्रतीत होता था । सामान्य आदमी की उम्र बढती है त्यों त्यों चेहरा कान्ति-हीन होता है, झुर्रियां बढने लगती है, लेकिन हम पूज्यश्री के चेहरे पर बढती हुई चमक को देख रहे थे । इतनी चमक, इतनी स्फूर्ति होने पर हम कैसे मान लें कि पूज्यश्री अब थोड़े समय के ही मेहमान है ?
पालीताना चातुर्मास के बाद मार्ग. सु. ५ (वि.सं. २०५७) को तीन पदवियां एवं १४ दीक्षाएं हुई । ठीक उसके दूसरे दिन पूज्यश्री का विहार हुआ । तब हमें कहां पता था कि पूज्यश्री का यह हमारा अंतिम दर्शन है ?
पूज्यश्री ने अंतिम चातुर्मास अपनी जन्मभूमि फलोदी में किया । विगत दो वर्षों में पूज्यश्री ने ऐसे ऐसे कार्य किये, मानो उन्हों ने मृत्यु की पूर्व तैयारी ही कर ली हों ।
कच्छ में वांकी तीर्थ में चातुर्मास करना, आचार्य पंन्यास गणि आदि पद-प्रदान करना, पालीताना में चातुर्मास करना, चातुर्मास में करीब करीब पूरे साधु-साध्वी समुदाय को साथ में रखना, सभी साधुसाध्वीओं को योगोद्वहन कराना... ये सब ऐसे कार्य थे जिन्हें हम मृत्यु की पूर्व तैयारी मान सकते है ।
* पूज्यश्री की महासमाधिपूर्ण मृत्यु :
पूज्यश्री को मृत्यु से ७-८ दिन पूर्व शर्दी-जुखाम हो गया था,
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