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सच्चिदानंदमय सद्गुरु का योग फिर इस पृथ्वी को कब मिलेगा ? उनकी दिव्य वाणी फिर कब श्रवण-गोचर होगी ? तीर्थंकर के समवसरण की स्मृति करानेवाली उनकी देशना-सभा अब कहां देखने मिलेगी ?
फिर भी इतना आनंद है कि ३०-३० वर्ष तक पूज्यश्री का सान्निध्य मिला । वर्षों तक पूज्यश्री के चरणों में बैठने का, पूज्यश्री की वाणी सुनने का सौभाग्य मिला । वांकी (वि.सं. २०५५) तथा पालीताना (वि.सं. २०५६) चातुर्मास की वाचनाएं सुनने का सौभाग्य मिला । न केवल सुनने का, अपि तु उसी वक्त अवतरण करने का और प्रकाशित कराने का भी सौभाग्य मिला । आज पूज्यश्री की अनुपस्थिति में विचार आता है : यह सब कैसे हो गया ? वैसे तो हमारे विगत १६ वर्षों से प्रायः अलग चातुर्मास ही होते रहे हैं, फिर भी वांकी पालीताना चातुर्मास साथ में करना, वाचनाओं का अवतरण करना, उनका प्रकाशित होना... यह सब शीघ्र रूप से कैसे हो गया ? मानो किसी अज्ञात शक्ति ने हमसे यह काम करवा लिया । पूज्यश्री की भाषा में कहें तो प्रभु ने हम से यह काम करवा लिया । पूज्यश्री हर बात में प्रभु को ही आगे रखते थे ।
(पूज्यश्री की वाणी का अवतरण जो हम कुछ परिष्कार एवं कुछ भाषाकीय परिवर्तन कर के करते है, उसमें कहीं पूज्यश्री के आशय से विरुद्ध तो नहीं होता होगा न ? ऐसी हमें बार-बार शंका होती थी। एक वक्त (लाकडीआ-सिद्धाचल के छौरी पालक संघ में उपरियाला के आसपास किसी गांव में, वि.सं. २०५६) वाचना के बाद मैंने पूज्यश्री को मेरी नोट दे दी और कहा : अगर कहीं गलती हो तो आप सुधारें । पूज्यश्री ने दो दिन नोट देखी और कहा : तुम मेरे मन की बात ही विशेष पुष्ट बनाते हो । अब तुम्हें नोट दिखाने की कोई जरूरत नहीं । अवतरण में कोई गलती नहीं है ।
पूज्यश्री के अभिप्राय से हम प्रसन्न हुए ।
एक दूसरा प्रसंग भी याद आता है : वि.सं. २०५२ में हमारा हुबली चातुर्मास था तब पूज्यश्री का कोइम्बतुरं में चातुर्मास था । वहां से पूज्यश्री
का पत्र आया :
'मंत्र - मूर्तिं समादाय, देवदेवः स्वयं जिनः ।
सर्वज्ञः सर्वगः शान्तः सोऽयं साक्षाद् व्यवस्थितः ॥'