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गुरुजी ! आप कहां छिपे है ?
__'कहे कलापूर्णसूरि' (पूज्यश्री की वाचना-प्रसादी) के ४ भाग गुजराती में छप चुके हैं । जिज्ञासु वाचकों में इनकी इतनी डीमांड है कि जिसका कोइ हिसाब नहीं । आज थोड़े समय में ही ४थे भाग को छोड़ कर प्रथम तीन भाग अलभ्य प्रायः हो गये हैं। यह तो गुजराती वाचकों की डीमांड है। हिन्दी वाचकों की डीमांड भी कब से हो रही थी : हमें हिन्दी में चाहिए ।
पूज्यश्री के पट्टप्रभावक पू. गुरुवर्य आचार्य श्री विजयकलाप्रभसूरीश्वरजी म.सा. एवं विद्वद्वर्य पू.पं. श्री कल्पतरुविजयजी की ओर से भी बार बार यह बात होती रही : इन ग्रन्थों का हिन्दी में शीघ्र अनुवाद हो । आखिर इन ग्रन्थों में से प्रथम भाग का अनुवाद नैनमलजी सुराणा द्वारा कराया गया और आज प्रकट हो रहा है, इसकी हमें प्रसन्नता है। * परम श्रद्धेय सच्चिदानंदमय पूज्य आचार्यश्री का महाप्रयाण :
माघ शु. ३ (वि.सं. २०५८) का दिन था । हम मनफरा (कच्छवागड़) में प्रभु-प्रवेश-प्रतिष्ठा आदि कार्यों के निमित्त आये थे । उसी दिन हमने इसका हिन्दी अनुवाद मुद्रित करने के लिए 'Tejas Printers' वाले तेजसभाई को दिया, जो उस दिन मनफरा आये थे । उस वक्त हमें कहां पता था : कल ही पूज्य आचार्यश्री इस जगत् से प्रयाण करनेवाले है ?
उसी दिन शाम को विहार कर के हम माय नामके छोटे गांव में गये । रात के खुले आकाश में हमने चमकता हुआ एक तारा अदृश्य होते देखा । दूसरे दिन जिन-शासन का प्रकाशमान एक सितारा अदृश्य होनेवाला था, इसका क्या यह पूर्व संकेत होगा ?
दूसरे दिन विहार में ही सुबह ९.३० बजे जब हमने लाकड़ीआ संघ के आदमीओं के मुंह से पूज्यश्री के कालधर्म का समाचार सुना, तब हम आश्चर्य और आघात से स्तब्ध हो गये । शनैः शनैः आंखों में से अश्रुधारा बहने लगी । आधोई में आ कर देव-वंदन करने के बाद गुणानुवाद करने का अवसर आया तब हम फूट-फूट कर इतने रो पड़े थे कि गुणानुवाद के लिए दो-चार वाक्य ही मुश्किल से बोल सके ।
बार-बार एक ही बात दिमाग में घूमती रही : ऐसे प्रभुमग्न, प्रबुद्ध,