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“आचार्य शिवकोटि ने 'भगवती आराधना' में सल्लेखनाधारक के लिए समाहित चित्तवाला होना आवश्यक बताया है। उन्होंने समाहित चित्त की महत्ता बताते हुए कहा है - जिसका चित्त अशुभ परिणामों को छोड़ देता है तथा उसे जहाँ लगाया जाए वहीं ठहरा रहता है, जिसने साधुलिंग स्वीकार किया है, जो ज्ञान-भावना में निरन्तर तत्पर है तथा जो शास्त्र-निरूपित विनय का पालन करता है तथा जिसका हृदय निरन्तर रत्नत्रय में लीन हो वह सम्यक् समाधि आराधने योग्य है। ऐसा चित्त समाहित चित्त होता है। आगे कहते हैं कि जिसका चित्त अशुभ परिणामों के प्रवाह से रहित और वशवर्ती होता है वह चित्त समाहित होता है। वह समाहित चित्त बिना थके निरतिचार चारित्र के भार को धारण करता है।" . “ 'भगवती आराधना' आचार्य शिवार्य का एक ऐसा सरस और लोकप्रिय ग्रंथ है कि उसका उसके रचनाकाल से लेकर अबतक अनवरतरूप से परम आदरपूर्वक पठनपाठन होता रहा है। न केवल पठन-पाठन होता रहा है अपितु परवर्ती साहित्यकारों की रचनाओं पर उसका अत्यधिक प्रभाव भी पड़ा है। प्रमाणस्वरूप मध्यकालीन हिन्दीजैन-साहित्य से अनेक उद्धरण प्रस्तुत किए जा सकते हैं।" ___ “कविवर दौलतराम और द्यानतराय की भाँति कविवर मंगतराय के काव्य पर भी 'भगवती आराधना' का विशेष प्रभाव देखने को मिलता है। विक्रम की 18वीं शताब्दी के मूर्धन्य कवि महाकवि भूधरदास के काव्य पर भी 'भगवती आराधना' का अत्यधिक प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।"
“इसके अतिरिक्त कविवर सूरचन्द ने तो अपनी प्रसिद्ध रचना 'समाधिमरण पाठ भाषा' का निर्माण ही पूरी तरह ‘भगवती आराधना' के आधार पर किया है। उसके लगभग सभी छन्दों पर 'भगवती आराधना' का गहरा प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। उदाहरण भी उन्हीं सुकुमाल, सुकौशल, गजकुमार, सनत्कुमार, एणिकसुत, भद्रबाहु, ललितघटादि, धर्मघोष, श्रीदत्त, वृषभसेन, अभयघोष, विद्युच्चर, चिलातपुत्र, दंडक, अभिनन्दनादि, सुबन्धु, आदि समाधिप्राप्त मुनियों के दिये हैं जो भगवती आराधना में उपलब्ध होते हैं। प्रमाणस्वरूप ग्रंथ की 1534 से 1556 तक की गाथाएँ देखनी चाहिए।" __ " 'भगवती आराधना' परवर्ती हिन्दी-जैन-साहित्य का एक अत्यन्त प्रमुख आधार ग्रंथ रहा है। यदि यह भी कह दिया जाए कि षटखंडागम, समयसार, महापुराण आदि अनेक ग्रंथों की भाँति यह भी परवर्ती जैन-साहित्य का एक प्रधान उपजीव्य ग्रंथ रहा है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।"
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