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जैनविद्या 25
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मरणों का वर्णन किया है। 1. पण्डित-पण्डित मरण, 2. पण्डितमरण, 3. बाल पण्डितमरण, 4. बाल मरण, और 5. बालबाल मरण। पण्डित मरण के तीन भेद हैं - भक्तप्रतिज्ञा, प्रायोपगमन और इंगिनीमरण। इन मरण प्रकारों का विस्तार से वर्णन किया गया है।
डॉ. सेट्टर की दो महत्त्वपूर्ण पुस्तकें कर्णाटक विश्वविद्यालय, धारवाड़ से प्रकाशित हुई हैं - 1. Inviting Death (1986 A.D.), और 2. Pursuing Death (1990 A.D.)। पहली पुस्तक में उन्होंने श्रवणबेलगोल और उसमें हुई सल्लेखना का ऐतिहासिक दृष्टि से वर्णन किया है और दूसरी पुस्तक में उन्होंने 'भगवती आराधना' के आधार पर सल्लेखना या मरणसमाधि का विवेचन किया है। हमने अपने विवेचन में इन दोनों पुस्तकों का भी आधार लिया है। यहाँ हम भगवती आराधना का विषय-परिचय देते हुए उसका तुलनात्मक मूल्यांकन भी करते चलेंगे। सल्लेखना या आराधना का स्वरूप
जैन परम्परा में 'सल्लेखनापूर्वक मरण' को सर्वोत्तम मरण माना गया है और भगवती आराधना में 'सल्लेखना' के लिए 'आराधना' शब्द का प्रयोग हुआ है। आराधना की एक लम्बी प्रक्रिया है। इसे हम एक आध्यात्मिक साधना कह सकते हैं जिसका उद्देश्य केवली' या 'सिद्ध अवस्था' प्राप्त करना रहा है। आचार्य शिवार्य ने आराधना का अर्थ दिया है - सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र
और सम्यक्त्व का उद्योतन, उद्यवन, निर्वहन, साधन और निस्तरण (गाथा 2)। इसमें सम्यक्त्व के विषय में शंका-दोष या संशय को दूर किया जाता है (उद्योतन), आत्मचिन्तन और आत्मदर्शन किया जाता है (उद्यवन)। इस प्रक्रिया में किसी भी प्रकार की आकुलता नहीं होना चाहिए (निर्वहन) और निराकुलनपूर्वक परीषहों को सहते हए परिणामों को निर्मल बनाये रखना चाहिए (निस्तरण)। इस प्रक्रिया से साधक परमात्म-अवस्था के प्राप्त कर लेता है।
. इस प्रक्रिया में साधक दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप की सम्यक् आराधना के लिए शरीर की अशुचिता और अनित्यता पर चिन्तन करता है, आत्मा की परम विशुद्धता पर मन्थन करता है, आर्त-रौद्र ध्यान से मुक्त होकर धर्मध्यान और शुक्लध्यान की ओर चरण बढ़ाते हुए सिद्धत्व का अनुभव करता है। इस अनुभूति में सांसारिक पर पदार्थों से मन पीछे हट जाता है और स्वतत्त्व पर प्रतिष्ठित हो