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जैनविद्या 25
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(3) प्रायोपगमन मरण
प्रायोपगमन या पादोपगमन मरण भी पण्डितमरण का ही भेद है। इसमें साधक दूसरे की सेवा भी स्वीकार नहीं करता। वह कटे हुए वृक्ष की तरह अचल रहता है। यह मरण वही स्वीकार कर पाता है जिसके वज्रवृषभ नाराच संहनन होता है। आचारांग सूत्र में भी इसका वर्णन मिलता है (1.7.8.19-24)। भगवती आराधना में पन्द्रह गाथाओं में इसका वर्णन हुआ है (2056-70)। इस मरण का वरण करनेवालों में अयोध्या का धर्मसिंह राजा, पाटलिपुत्र का ऋषभसेन श्रेष्ठी और शकटाल का उदाहरण दिया गया है। यहाँ गाथा 2069 की कथा (क्र. 156) में यतिवृषभ का उल्लेख हुआ है। इन कथाओं में विविध उपसर्गों का उल्लेख हुआ है।
कन्नड़ लेखकों में शिवकोट्याचार्य, पम्प, पोन्न, चामुण्डराय, नागवर्मा द्वितीय, कर्णपार्य, शान्तिनाथ, बन्धुवर्म, अग्गल आदि कवियों ने इस मरण पर विचार किया है। प्रायोपगमन और वीर प्रायोपगमन का भी उल्लेख आता है। प्रतिमायोग
और कायोत्सर्ग जैसे आसनों का उपयोग किया जाता है। भगवान बाहबली ने कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े रहकर चींटियों, साँपों आदि के आक्रमण झेले। प्रायोपगमन में नीहार (अनियत स्थान मृत्यु का) और अनिहार (निश्चित स्थान मृत्यु का) ये दो प्रकार की मृत्यु होती हैं। (4) बालपण्डितमरण
___ जो समस्त व्रतों का एकदेश पालन करता है, गृहस्थ धर्म का पालन एकदेश रूप में करता है वह देशसंयमी है। ऐसा देशसंयमी श्रावक पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों का पालन करता है। सहसा मरण उपस्थित होने पर अपने दोषी की आलोचनापूर्वक शल्यरहित होकर अपने घर पर ही संस्तरण लगाकर वह श्रावक मरण को वरण करता है। उसका यह मरण बालपण्डितमरण है। शेष विधि भक्तप्रत्याख्यान मरण के समान है। वह श्रावक मरकर वैमानिक देवों में उत्पन्न होता है और सात भवों में मुक्ति प्राप्त करता है (2072-80)। (5) पण्डितपण्डित मरण
पण्डित मरण में साध क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होने की इच्छा से अप्रमत्त गुणस्थान में धर्मध्यान करता है, एकपार्श्व से लेटकर श्रुतस्मरण करता है, अनन्तानुबन्धी कषायों का क्षयकर मिथ्यात्व, सम्यक् मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृतियों