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जैनविद्या 25 चित्त अशुभ परिणामों के प्रवाह से रहित और वशवर्ती होता है वह चित्त समाहित होता है। वह समाहित चित्त बिना थके निरतिचार चारित्र के भार को धारण करता है।
___ इसके विपरीत यदि वचन और शरीर से शास्त्रानुसार आचरण करनेवाले साधु का मन भी यदि निश्चल नहीं है तो उसका श्रामण्य नष्ट हो जाता है अतः समाधि के लिए चित्त निश्चल होना आवश्यक है।
चंचल मन की दुष्टता प्रकट करते हुए आचार्य शिवकोटि कहते हैं कि 'बड़े जोर से चलनेवाली हवा की तरह मन भी चहुँ ओर अस्थिर रूप से दौड़ता है और परमाणु द्रव्य की तरह मन दूरवर्ती वस्तु के पास भी शीघ्रता से पहुँच जाता है।' आगे शिवार्य कहते हैं कि जिसका मन चंचल है उसका मन अंधे, बहरे और गूंगे के समान है, क्योंकि कभी-कभी किसी विषय में आसक्त मन निकटवर्ती विषयों को भी नहीं देखता, न ही सुनता है और न ही बोलता है अतः शीघ्र नष्ट हो जाता है, उसका पहाड़ी नदी के प्रवाह की तरह लौटना अशक्य है।
आचार्य शिवकोटि कहते हैं कि जैसे कुमार्ग पर चलते हुए दुष्ट घोड़े को रोकने पर वह मार्ग से गिरा देता है वैसे ही मन भी खोटे मार्ग में गिराता है; तथा जैसे चिकने शरीरवाली मछली को पकड़ना कठिन है वैसे कषाययुक्त मन को रोकना बहुत कठिन है।"
आगे कहते हैं कि जिस मन की चेष्टा से जीव हजारों दुःख भोगते हुए भयंकर अंशुभ गतियों से भरे हुए अनन्त संसार में भ्रमण करते हैं। उस मन के निवारण करने मात्र से मनुष्य के संसार के सब कारक, राग-द्वेष आदि दोष शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं।18 इसप्रकार जो दुष्ट मन का निवारण करता है और उसे श्रद्धान आदि में स्थिर करता है तथा जो मन को शुभ संकल्पों में ही लगाता है और स्वाध्याय में प्रवृत्त रहता है उसके ही समता होती है। जो भी रत्नत्रय से च्युत होकर रागादि में जानेवाले मन को विचारों के साथ हटाता है और जो मन को निन्दा-गर्दा के द्वारा निर्गृहीत करता है, उसकी निन्दा करता है, मन को अति लज्जित करता है उसके सामण्ण (समता भाव) होता है।20 वश में रहनेवाले दास की तरह जो अपने मन को वश में करता है उसके एकमात्र शुद्ध चिद्रूप