Book Title: Jain Vidya 25
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 79
________________ जैनविद्या 25 का अवलम्बन करनेवाला, पाप परिणामों से निवृत्त और जिनशासन का अनुगामी श्रामण्ण होता है। समाहित चित्त : शिवार्य की दृष्टि में22 जहाँ दृढ़ संकल्प है मैं उसे समाहित चित्त समझता हूँ। जहाँ तीव्र तपोबल है मैं उसे समाहित चित्त समझता हूँ।। ढेरों खुशियाँ और आनन्द ही आनन्द है समाहित चित्त में। जहाँ अटूट मनोबल है मैं उसे समाहित चित्त समझता हूँ।।1।। समाहित चित्त बन्धन नहीं, व्यवस्था है। समाहित चित्त संयम की अवस्था है।। सीधा मार्ग है सत्यं, शिवं, सुन्दरं का - समाहित चित्त अनुशासन की संस्था है।।2।। समाहित चित्त बंधन नहीं, विकास का सोपान है। इसकी सीमाएँ अभिशाप नहीं, जीवन का वरदान है।। मनुष्य इससे सहज पार कर लेता है मोक्षमार्ग को। समाहित चित्त हुकूमत नहीं, हृदय का संविधान है।।3।। समाहित चित्त का महत्व है पतंग की डोर की तरह। समाहित चित्त का महत्त्व है गन्ने की पोर की तरह।। शिवार्य का मानना है जरा गौर फरमाइये - समाहित चित्त का महत्त्व है, सागर के छोर की तरह।।4।। समाहित चित्त-विहीन क्षपक नहीं, शैतान है। समाहित चित्त-विहीन क्षपक नहीं, हैवान है।। सल्लेखना का पहला पाठ समाहित चित्त से शुरू होता है। समाहित चित्तवान क्षपक राही अक्षयधाम होता है।।5।। समाहित चित्त बन्धन नहीं, विकास है। समाहित चित्त अंधकार नहीं, प्रकाश है।। समाहित चित्त चित्त की कुंठा, कूड़ा-करकट नहीं - समाहित चित्त चंदन की सुवास है।।6।।

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