Book Title: Jain Vidya 25
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 97
________________ जैनविद्या 25 मेत्ति खमिदव्वं जदिदा सवदि असंतेण परो वं णत्थि मेत्ति खमिदव्वं । अणुकंपा वा कुज्जा पावड़ पावं वरावोत्ति । 1415। - जदि वा सवेज्ज संतेण परो तह वि पुरिसेण खमिदव्वं । सो अस्थि मज्झ दोसो ण अलीयं वेण भणिदत्ति | 1416। - 84 आचार्य शिवार्य भगवती आराधना यदि कोई दूसरा मुझमें अविद्यमान दोष को कहता है तो वह दोष मुझमें है ही नहीं, इसलिए उस व्यक्ति को क्षमा कर देना चाहिए। क्योंकि उसके द्वारा मेरे बारे में असत् दोष कहने से मेरी क्या हानि हुई ? और यदि वह मुझमें विद्यमान दोष के बारे में कहता है तो भी उसे क्षमा कर देना चाहिए। क्योंकि वह जो दोष कह / बता रहा है वह वास्तव में मुझमें है, वह झूठ नहीं कह रहा है। वह तो सत्य बता रहा है। अतः निन्दा करनेवाले के प्रति दया करनी चाहिए। क्योंकि वह बेचारा झूठ बोलकर अनेक दुःख देनेवाला पाप एकत्र कर रहा है। मेरे दोषों से न उसमें दोष उत्पन्न होता है न मेरे गुणों से उसका कोई लाभ होता है, वह तो निन्दा करके व्यर्थ ही अपने लिए पाप-अर्जन करता है। अनु. - पण्डित कैलाशचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री

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