Book Title: Jain Vidya 25
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 95
________________ जैनविद्या 25 अवमौदर्य, रसत्याग, वृत्तिपरिसंख्यान, कायक्लेश और विविक्तशय्या) धारण किये जाते हैं (गाथा 210)। इनमें अनशन के प्रसंग में अद्धानशन शब्द चतुर्थ आदि से लेकर छहमास पर्यन्त अनशन के समस्त भेदों के लिए ग्रहण किया गया है (गाथा 212)। पुरुष की उदरपूर्ति के लिए बत्तीस ग्रास और नारियों के कुक्षिपूरक आहार का प्रमाण अट्ठाइस ग्रास कहा है (गाथा 213)। सल्लेखना काल में दूध आदि सबका या यथायोग्य दो-तीन-चार रसों का त्याग, रस-परित्याग है (गाथा 217)। आदरपूर्वक यथाविधि सभी तप अंगीकार करते हुए दोषरहित वसति में रहें। शुद्ध आहार लेकर ही तप करें। क्रम से आहार कम करते हुए शरीर कृश किया जाता है (गाथा . 249)। दो, तीन, चार दिन और पाँच दिन के उपवास के बाद परिमित और लघु आहार आचाम्ल किया जाता है। आचाम्ल (कांजी) का आहार उत्कृष्ट कहा गया है (गा. 253)। भक्तप्रत्याख्यान का काल बारह वर्ष कहा है। इसमें कायक्लेश द्वारा चार वर्ष, दूध आदि रस त्याग कर फिर चार वर्ष, पश्चात् आचाम्ल और निर्विकृति के द्वारा दो वर्ष व्यतीत किये जाते हैं। एक वर्ष आचाम्ल के द्वारा और शेष एक वर्ष में छह मास मध्यम तप के द्वारा और शेष छह मास उत्कृष्ट तप के द्वारा बिताता है (गाथा 254-256)। क्षेत्र, काल और अपनी शारीरिक प्रकृति को ध्यान में रखकर ही आहार और तप करना कहा है जिससे कि वात-पित्त-कफ क्षुब्ध न हों। (गाथा 257.) क्षपक शरीर-सल्लेखना की विधि करते हुए परिणामों की विशुद्धि क्षणभर के लिए भी नहीं छोड़े। (गाथा 258) परिणाम-विशुद्धि के लिए कषाय-सल्लेखना कही है। (गाथा 261) सल्लेखना धारक ये दो प्रकार के होते हैं - आचार्य और साधु। यदि आचार्य सल्लेखना के भाव करता है तो उसे अपनी आयु का विचार कर शुभ दिन, करण, नक्षत्र, लग्न और देश में, गुणों में अपने समान भिक्षुक का विचार कर संघ को कहता है कि 'यह तुम्हारा आचार्य है' तथा नवीन आचार्य से कहते हैं कि आप गण आचाम्ल (कांजी) = लघु आहार, चावल का माँड (पानी जिसमें चावल उबाले गए)।

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