Book Title: Jain Vidya 25
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 102
________________ जैनविद्या 25 89 ईंधन सौं आगि न धापै। नदियौं नहिं समुद समापै। यों भोगविषै अति भारी। तृपते न कभी तनधारी।।7.81-82।। अब इन पंक्तियों को 'भगवती आराधना' की निम्नलिखित गाथा से मिलाकर देखिए - जह इंधणेहिं अग्गी जह व समुद्दो णदीसहस्से हिं। तह जीवा ण हु सक्का तिप्पे दुं कामभोगेहिं।।1258।। - जैसे ईंधन से आग की तृप्ति नहीं होती, जैसे हजारों नदियों से समुद्र की तृप्ति नहीं होती वैसे ही भोगों से जीव की तृप्ति नहीं होती। यहाँ भी दोनों कथनों में जो अद्भुत साम्य है वह समझाने की आवश्यकता नहीं है। महाकवि भूधरदास के काव्य में ऐसी ही और भी अनेक पंक्तियाँ उपलब्ध होती हैं, किन्तु यहाँ उन सबकी तुलना संभव नहीं है। यहाँ तो केवल एक उदाहरण और देकर हम अपनी बात पुष्ट करते हैं। वज्रनाभि चक्रवर्ती की वैराग्यभावना के प्रसंग में महाकवि भूधरदास ‘पार्श्वपुराण' में लिखते हैं कि - मैं चक्री पद पाय निरन्तर भोगे भोग घनेरे। तो भी तनक भये नहीं पूरन भोग मनोरथ मेरे।।13।। ‘भगवती आराधना' की निम्नलिखित गाथा में भी ठीक यही भाव व्यक्त हुआ है - देविंदचक्कवट्टी य वासुदेवा य भोगभूमीया। भोगेहिं ण तिप्पंति हु तिप्पदि भोगेसु किह अण्णो।।1259।। - देवों के अधिपति इन्द्र, चक्रवर्ती, अर्धचक्री (वासुदेव) और भोगभूमि के जीव भी भोगों से तृप्त नहीं होते तब साधारण मनुष्य भोगों से कैसे तृप्त हो सकता है! अर्थात् अपरिमित साधनयुक्त, चिरकाल तक जीवित रहकर स्वाधीन रूप से उन भोगों का भोग करके तृप्त नहीं हो पाते तब साधारण मनुष्य जो कि अल्पआयु हैं, सीमित साधनवाले हैं तथा पराधीन हैं उनकी भोगों से तृप्ति होने की तो बात ही क्या करना! स्पष्ट है कि महाकवि भूधरदास के काव्य पर भी 'भगवती आराधना' का बहुत प्रभाव है।

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