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जैनविद्या 25
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इन गाथाओं के भाव को हिन्दी के अनेक सुकवियों ने अपनी काव्यरचनाओं में अत्यन्त कुशलता के साथ व्यक्त किया है। विक्रम की सत्रह-अठारहवीं शताब्दी में इस भाव को प्रकट करनेवाले अनेक रसात्मक पद भी लिखे गये हैं। प्रमाण-स्वरूप एक पद यहाँ अवलोकनीय है -
हे मन! तेरी को कुटेव यह, करन विषय में धावे है।।टेक।। इनहीं के वश तू अनादि तै, निज स्वरूप न लखावे है। पराधीन छिन छीन समाकुल, दुर्गति विपति चखावे है।।1।। फरस विषय के कारण वारन, गरत परत दुख पावे है। रसना इंद्रीवश झष जल में, कण्टक कंठ छिदावे है।।2।। गंधलोल पंकज मुद्रित में, अलि निज प्रान खपावे है। नयन विषयवश दीपशिखा में, अंग पतंग जरावे है।।3।। करनविषय वश हिरन अरन में, खलकर प्राण लुनावे है। 'दौलत' तज इनको जिन को भज, यह गुरु सीख सुनावे है।।4।।
- दौलत विलास, पद 109 तात्पर्य यह है कि 'भगवती आराधना' परवर्ती हिन्दी-जैन-साहित्य का एक अत्यन्त प्रमुख आधार-ग्रंथ रहा है। यदि यह भी कह दिया जाए कि षट्खंडागम, समयसार, महापुराण आदि अनेक ग्रंथों की भाँति यह भी परवर्ती जैन-साहित्य का एक प्रधान उपजीव्य ग्रंथ रहा है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
1. भगवती आराधना, संपादक पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री, जैन संस्कृति संरक्षक संघ,
सोलापुर, महाराष्ट्र, संस्करण सन् 2006 2. छहढाला, कविवर पं. दौलतराम (ज्ञानपीठ पूजांजलि, भारतीय ज्ञानपीठ) 3. दशलक्षण धर्म पूजा, कविवर द्यानतराय (ज्ञानपीठ पूजांजलि, भारतीय ज्ञानपीठ) 4. बारह भावना, कविवर मंगतराय (ज्ञानपीठ पूजांजलि, भारतीय ज्ञानपीठ) 5. पार्श्वपुराण, महाकवि भूधरदास, सन्मति ट्रस्ट, मुंबई, सन् 2001 6. समाधिमरण पाठ भाषा, कविवर सूरचन्द (वृहज्जिनवाणी संग्रह, पं. टोडरमल स्मारक
ट्रस्ट, जयपुर) 7. दौलतविलास, कविवर पं. दौलतराम, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, सन् 2009
अध्यक्ष, जैनदर्शन विभाग श्री लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ
नई दिल्ली 110016