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जैनविद्या 25
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यहाँ चित्त का तात्पर्य भावमन से है। वह नोइन्द्रियमति है। यह मति नोइन्द्रिय मतिज्ञानावरण के क्षयोपशमवाली आत्मा के होती है। जैसे राग, कोप, भय और दुःखादि परिणाम नट के आधीन होते हैं, इसी प्रकार नोइन्द्रियमति भी आत्मा की इच्छा से किसी एक विषय में रुकी हुई अनुभव में आती है। अर्थात् भावमन आत्मा की इच्छानुसार किसी भी विषय में लीन हो जाता है। समण वही है जिसका चित्त राग-द्वेष से अबाधित हो (पृ. 174)। वचन और शरीर से आचरणी साधु का मन यदि निश्चल नहीं तो श्रामण्य नष्ट हो जाता है -
कायेण य वायाए जदि वि जधुत्तं चरदि भिक्खु।।135।। शुभसंकल्पों और स्वाध्याय में मन लगाने से समताभाव होता है -
. सुह संकप्पपयारं च कुणदि सज्झायसण्णिहिद।।141।। . समाधिमरण के इच्छुक को अनियतवास करना उचित कहा है। दर्शनविशुद्धि, स्थितिकरण, भावना, अतिशय अर्थों में निपुणता और क्षेत्र का अन्वेषण जैसे गुण अनियतवास में समाहित कहे हैं -
दसणसोधी ठिदिकरणभावना अदिसयत्तकुसलत्तं ।
खेत्तपरिमग्गणावि य अणियदवासे गुणा होति।।144।। समाधि का इच्छुक बारह वर्ष-पर्यन्त निर्यापक की खोज करता है - एवं व दो व तिण्णि य वारसवरिसाणि वा अपरिदंतो।
णिज्जयवयमणुण्णादं गवेसदि समाधिकामो दु।।404।। सल्लेखनां
समाधिमरण का ही अपर नाम सल्लेखना है। इसके दो भेद हैं - आभ्यन्तर और बाह्य। कषायों का कृष करना आभ्यन्तर सल्लेखना और शरीर को कृश करना बाह्य सल्लेखना है। कहा भी है -
सल्लेहणा य दुविहा अभंतरिया य बाहिरा चेव। अब्भंतरा कसायेसु बाहिरा होदि ह सरीरे।।208 ।।
बाह्य सल्लेखनार्थ सर्व रसों का त्याग कर रूखे-नीरस आहार से शरीर क्रम से कृश किया जाता है (गाथा 209)। इसके लिए बाह्य तप (अनशन,
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