Book Title: Jain Vidya 25
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 88
________________ जैनविद्या 25 75 में भी प्राप्त करना अवधिमरण है। इसमें वर्तमान आयु के उदय के समान एकदेश बंध करने को देशावधिमरण कहा है तथा प्रकृति, स्थिति, अनुभव और प्रदेशों के अनुसार वर्तमान में उदय में आ रही आयु का पुनः आयुबंध करना सर्वावधिमरण है। इस प्रकार अवधिमरण के ये दो भेद कहे हैं। (पृ. 53) (4) आदि-अन्तमरण - _ "प्रकृतिस्थित्यनुभवप्रदेशैर्यथाभूतैःसाम्पृतमुपैति मृतिं तथाभूतां यदि सर्वतो देशतो वा नोपैति तदाद्यंतमरणं" अर्थात् प्रकृति, स्थिति, अनुभव और प्रदेश द्वारा एकदेश या सर्वदेश मरण को प्राप्त नहीं होना आद्यन्तमरण है। (पृ. 53) (5) बालमरण - बालमरण के पाँच भेद कहे हैं - (1) अव्यक्तबाल . (2) व्यवहारबाल (3) ज्ञानबाल (4) दर्शनबाल (5) चारित्रबाल। इनमें जो धर्म, अर्थ, काम को नहीं जानता और न इनके आचरण में जिसका शरीर ही समर्थ है वह 'अव्यक्तबालमरण' है। लोक, वेद और समय सम्बन्धी व्यवहार को नहीं जाननेवाला शिशु के समान व्यवहारी व्यवहारबालमरण' है। वस्तु को यथार्थ रूप से ग्रहण करनेवाले ज्ञान से रहित 'ज्ञानबालमरण' है, अर्थ-तत्त्व-श्रद्धान से रहित 'दर्शनबालमरण' और चारित्र-पालन से रहित ‘चारित्रबालमरण' कहे हैं। यहाँ दर्शनबालमरण दो प्रकार का है - प्रथम स्वेच्छापूर्वक दूसरा अनिच्छपूर्वक। इनमें अग्नि, धूम, शस्त्र, विष, जल, पर्वत, श्वास-निरोध, अतिशीत, अतिगर्मी, रस्सी, भूख, प्यास, जीभ-उखाड़ने और प्रकृति विरुद्ध आहार के सेवन से मरना ‘इच्छापूर्वक दर्शनबालमरण' मरण है, किन्तु किसी निमित्तवश जीवन त्यागने की इच्छा होने पर भी अन्तरंग में जीने की इच्छा रहते हुए काल या अकाल में अध्यवसानादि से हुआ मरण 'अनिच्छापूर्वक दर्शनबालमरण' कहा है। ऐसा मरण विषयासक्त, अज्ञानी, ऋद्धि, रस और सुख के अभिलाषी करते हैं। ये बालमरण तीव्र पापकर्मों के आस्रवद्वार हैं। जन्म-जरा-मरण के दुःखों को लानेवाले हैं (पृ. 54)। अविरत सम्यग्दृष्टि का बालमरण तथा मिथ्यादृष्टि का बालबालमरण कहा गया है (गाथा 29, पृ. 65)। (6) पण्डितमरण - इसके चार भेद हैं। इनमें लोक, वेद, समय के व्यवहार में अथवा अनेक शास्त्रों के ज्ञाता, सेवा आदि बौद्धिक गुणों से युक्त को 'व्यवहारपण्डितमरण' कहा है। क्षायिक, क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन से युक्त को

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