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जैनविद्या 25
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पण्डितमरण - इसके तीन भेद बताये हैं - पादोपगमन अथवा प्रायोपगमनमरण, भक्तप्रतिज्ञा (भक्तप्रत्याख्यान) और इंगिनीमरण। निम्नांकित गाथा द्रष्टव्य है -
पायोपगमणमरणं भत्तपइण्णा य इंगिणी चेव।
तिविहं पंडितमरणं साहुस्स जहुत्तचारिस्स।।28।।
जिनदेव पंडितपंडितमरण, पंडितमरण तथा बालपंडितमरण की प्रशंसा करते हैं। गाथा है -
पंडियपंडियमरणं च पंडिदं बालपंडिदं चेव।।
एदाणि तिण्णि मरणाणि जिणा णिच्चं पसंसति।। पृ. 64 .
(1) प्रायोपगमन/प्रायोग्यगमनमरण - प्रायोग्य शब्द से संसार का अन्त करने योग्य संहनन और संस्थान कहे जाते हैं। उससे गमन अर्थात् प्राप्ति को प्रायोग्यगमन कहा है। इसके कारण होनेवाले मरण को प्रायोग्यगमनमरण संज्ञा दी गई है (पृ. 65)।
प्रायोपगमन विधि (पृ. 883) - इसमें तृणों के संथारे का - तृणशय्या का निषेध है क्योंकि स्वयं अपने से और दूसरे से भी सर्वप्रकार का प्रतीकार करना-कराना निषिद्ध है। कहा है -
णवरिं तणसंथारो पाओवगदस्स होदि पडिसिद्धो।
आदपरपओगेण य पडिसिद्धं सव्वपरियम्मं ।।2058।। (2) भत्तपइण्णा -
भज्यते सेव्यते इति भक्तं, तस्य पइण्णा - त्यागो भत्तपइण्णा। इतरयोरपि भक्तप्रत्याख्यानसंभवेऽपि रूढिवंशान्मरण विशेषे एव शब्दोऽयं प्रवर्तते (पृ. 65)
____ अर्थात् जो सेवन किया जाए वह भक्त (भोजन आदि) है। उसकी ‘पइण्णा' अर्थात् त्याग 'भक्त पइण्णा' है। अपर शब्द भक्तप्रत्याख्यान के रहते हुए भी रूढ़िवश मरण अर्थ में ‘भत्तपइण्णा' शब्द व्यवहृत हुआ है।
स्वपरसंपाद्यप्रतीकारापेक्षः भक्त प्रत्याख्यानविधिः अर्थात् भक्तप्रत्याख्यान में स्वयं अपनी सेवा कर सकता है और दूसरों से भी करा सकता है (पृ. 883)। इसका समय बारह वर्ष कहा है (गाथा 254)।