Book Title: Jain Vidya 25
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

View full book text
Previous | Next

Page 89
________________ 76 जैनविद्या 25 'दर्शनपण्डितमरण', मति आदि पाँच प्रकार के सम्यग्ज्ञान रूप से परिणत 'ज्ञानपण्डितमरण' तथा किसी एक चारित्र के पालक को 'चारित्रपण्डितमरण' संज्ञा दी है। दर्शनपण्डितमरण - नरक में, भवनवासी देवों में, वैमानिक देवों में, ज्योतिष्क देवों में, व्यंतर देवों में और द्वीप समुद्रों में होता है। ज्ञानपण्डितमरण भी इन्हीं में होता है किन्तु 'केवलज्ञान, मनःपर्यायज्ञान पण्डितमरण' मनुष्यलोक में ही होता है (पृ. 55)। (7) ओसण्णमरण - निर्वाणमार्गी संयमी जो संघ से रहित है, या जिसे संघ से निकाल दिया गया है, उसके मरण को ‘ओसण्णमरण' (अवसन्नमरण) कहा है। पार्श्वस्थ, स्वच्छन्द, कुशील और संसक्त ओसण्ण संज्ञक है। कहा भी है - पासत्थो सच्छंदो कुसील संसत्त होंति ओसण्णा। जं सिद्धिपच्छिदादो ओहीणा साधु सत्थादो।। ___ जो साधु ऋद्धिप्रेमी, रसप्रेमी, दुःखों से भीत, दुःखों से कातर, कषायसंलग्न, आहारादि के आधीन, पापवर्द्धक, शास्त्राभ्यासी, तेरह क्रियाओं में आलसी, संक्लेषित चित्तवान, भोजन और उपकरणों से प्रतिबद्ध, निमित्तशास्त्र, मंत्र, औषधि आदि से आजीवी, गुणों से हीन, गुप्तियों और समितियों में उदासीन, संवेग भावों में मंद, दशविध धर्म से उदासीन, सदोष चारित्रवाले होते हैं उन मुनियों को अवसन्न कहते हैं (पृ. 55)। (8) बालपण्डितमरण - सम्यग्दृष्टि संयतासंयत का ऐसा मरण कहा है, . क्योंकि वह बाल और पण्डित दोनों में होता है। यह मरण गर्भज और पर्याप्तक तिर्यंचों तथा मनुष्यों में होता है। (9) सशल्यमरण - इसके दो भेद हैं - द्रव्यशल्यमरण और भावशल्यमरण। इनमें मिथ्यादर्शन, माया और निदान इन शल्यों का जो कर्म है वह द्रव्यशल्य है। इनमें आगामी काल में यही होना चाहिए - मन के ऐसे उपयोग को निदान कहा है। असंज्ञियों में निदान नहीं होता। मोक्षमार्ग को दोष लगाना और मिथ्यामार्ग का कथन करना मिथ्यादर्शनशल्य है। पार्श्वस्थ साधु के रूप में आलोचना किये बिना मरना मायाशल्यमरण है (पृ. 56-57)। (10) बलायमरण - अपने आचार-विचार में आदरभाव नहीं रखते हुए मुनि का मरण बलायमरण है। ओसण्णमरण और सशल्यमरण में यह मरण होता है (पृ. 57)।

Loading...

Page Navigation
1 ... 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106