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जैनविद्या 25
2. च्यावित : विष-भक्षण, रक्त-क्षय, धातु-क्षय, शस्त्र-घात, संक्लेश, अग्नि-दाह, जल-प्रवेश, गिरि-पतन आदि निमित्त कारणों से शरीर छोड़ा जाता है, वह च्यावित-मरण कहा गया है।
3. त्यक्त : रोगादि हो जाने और उनकी असाध्यता तथा मरण की व्यासन्नता ज्ञात होने पर विवेक-सहित संन्यासरूप परिणामों से शरीर छोड़ा जाता है, वह व्यक्त है। इन तीन प्रकार के शरीर-त्यागों में ‘त्यक्तरूप शरीर-त्याग' सर्वश्रेष्ठ और उत्तम माना गया है, क्योंकि त्यक्त अवस्था में आत्मा पूर्णतया जाग्रत एवं सावधान रहती है तथा कोई संक्लेश परिणाम नहीं होता। इस त्यक्त शरीरत्याग को ही समाधिमरण, संन्यास-मरण, पण्डित-मरण, वीर-मरण और सल्लेखना कहा गया है। यह सल्लेखना-मरण (त्यक्त शरीर-त्याग) भी तीन प्रकार का प्रतिपादित किया गया है.5 - 1. भक्तप्रत्याख्यान, 2. इंगिनीमरण और प्रायोपगमन।
(1) भक्तप्रत्याख्यान - भक्तप्रत्याख्यान नामक सल्लेखना के साधक को स्व और परकृत दोनों के उपकार की अपेक्षा रहती है। साधक वैयावृत्ति करनेवाला यदि नहीं होगा तो वह ठीक से सल्लेखना की साधना नहीं कर सकता है। अतः इसे एक निर्यापकाचार्य की आवश्यकता पड़ती है। इस पंचम काल में यह भक्तप्रत्याख्यान संथारा ही संभव है, इसका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्टकाल 12 वर्ष का है। शेष मध्यम काल है। भक्तप्रत्याख्यान प्रथमतः दो प्रकार का है - 1. संविचार मरण (जब दीर्घकाल बाद मरण हो तो इसका साधक बलहीन होता है) और 2. अविचार मरण (सहसा उपस्थित होने पर इसका साधक बलहीन होता है।)
(2) इंगिनीमरण - इसमें साधक को पर के उपकार (सहायता) की अपेक्षा नहीं रहती। मूत्रादि का निराकरण स्वयं करते हैं। यह सल्लेखना मात्र स्व-सापेक्ष होती है। इंगिनीमरण शब्द का अर्थ है - स्व-अभिप्रायानुसार स्थित होकर प्रवृत्ति करते हुए मरण। यह रूढ़ि शब्दार्थ है।
(3) प्रायोपगमन7 - इसमें स्व और पर दोनों की अपेक्षा नहीं होती। मूत्रादि का निराकरण न तो साधक स्वयं करता है और न दूसरे से कराता है। यह न तो स्वयं शुश्रूषा करता है और न दूसरे से कराता है। प्रायोपगमन को ही पादोपगमन या प्रायोग्यगमन शब्द से भी कहा गया है। भव का अन्त करने योग्य संहनन व संस्थान को प्रायोग्य कहते हैं। पाँवों से चलकर मरण करना पादोपगमन है। यह अन्य मरणों में भी सम्भव होने से यहाँ यह अर्थ रूढ़िवश है।