Book Title: Jain Vidya 25
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 77
________________ जैनविद्या 25 उपचार संभव न हो सके तब व्यक्ति को चाहिए कि वह धर्म-भावनापूर्वक शरीर का विसर्जन करे। भट्ट अकलंकदेव ने सल्लेखना के योग्य समय का निर्देश करते हुए कहा - 'जरा, रोग और इन्द्रियों की विफलता के कारण आवश्यक क्रियाओं की हानि होने पर शास्त्रोक्त विधि से सल्लेखना धारण करनी चाहिए।' शिवार्य भगवती आराधना11 में कहते हैं - ‘अनुकूल बन्धु, मित्र, शत्रु भी यदि चारित्र का विनाश करनेवाले हों अथवा भयंकर दुर्भिक्ष हो अथवा भयंकर जंगल में भटक गया हो तो भक्त सल्लेखना के योग्य होता है। सल्लेखना-धारक के लिए समाहित चित्त आवश्यक चित्त की स्थिरता के साथ आत्मा के स्वभाव में रहना धर्म है। अतः धर्म की स्थिति बनाये रखने के लिए प्रसन्नतापूर्वक देहादि से ममत्व बुद्धि छोड़कर समाहित होना ही समाधिमरण का प्रथम सोपान है। आचार्य अमितगति (द्वितीय)12 का कथन है - समाहितं मनो यस्य, वश्यं त्यक्ताशुभाम्रवम्। उह्यते तेन चारित्रमश्रान्तेनापदूषणम्।। जिसका मन अशुभ आस्रव के प्रवाह से रहित है तथा अपने वश में है, वह समाहित चित्तवाला होता है। समाहित चित्तवाला ही निर्दोष चारित्र को धारण करता है। आचार्य शिवकोटि ने - भगवती आराधना में सल्लेखना धारक के लिए समाहित चित्तवाला होना आवश्यक बताया है। उन्होंने समाहित चित्त की महत्ता इस प्रकार प्रतिपादित की है - चित्तं समाहिदं जस्स होज्ज वज्जिद विसोतियं वसियं। सो वहदि णिरदिचारं सामण्णधूरं अपरिसंतो।।134।। अर्थात् जिसका चित्त अशुभ परिणामों के प्रवाह को छोड़ देता है तथा उसे जहाँ लगाया जाए वहीं ठहरा रहता है, जिसने साधु लिंग स्वीकार किया है, जो ज्ञान-भावना में निरन्तर तत्पर है तथा जो शास्त्र-निरूपित विनय का पालन करता है तथा जिसका हृदय निरन्तर रत्नत्रय में लीन हो वह सम्यक् समाधि आराधने योग्य है। ऐसा चित्त समाहित चित्त होता है। आगे कहते हैं कि जिसका

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